काश कि मैं इनसान न होकर होती एक चिरैया
उड़ती फिरती कभी गगन में कभी पेड़ की छइयाँ
कभी बैठती जा मुँडेर पर और कभी चौबारे
कभी फुदकती डाली-डाली, कभी चहकती द्वारे
फुर-फुर उड़ती इधर-उधर बन आँगन की गौरेया
जंगल की मैं तोता होती और बाग की मैना
मन हर लेती बोल रसीले मधुर सुहाने बैना
स्वागत करती धरा भोर का नित कलरव से मेरे
कागा बन घर के ऊपर जब उड़ती बड़े सबेरे
आशा भरी निगाहें लेतीं मेरी खूब बलैयाँ
बना कहीं एकांत बसेरा मैं कपोत के संग में
गुटर-गुटर गूँ गाती रहती नित अपने ही रंग में
बया एक छोटी सी होती रखती बड़ा हौंसला
तिनका-तिनका चुनकर बुनती सुंदर घोंसला
बैठ उसी में झूमा करती चलती जब पुरवइया
मैं होती सारस परदेसिन शरद ऋतु में आती
करती पार सागरों को फिर दूर देश उड़ जाती
मधु ऋतु में मैं कोयल बन बागों में कूँजा करती
मेरी कूँ-कूँ से सारी अमराई गूँजा करती
मस्त मोरनी बन जंगल में करती ताता थइया
बगुला बन लहरों को मैं, चुपचाप निहारा करती
और पपीहा बन पावस में पिहूँ पुकारा करती
बुलबुल बन मीठे स्वर में मैं गाती वन उपवन में
नीलकंठ बन सपनों की जा उड़ती नील गगन में
और कहीं छुप जाती बन सुधियों की सोन चिरैया
खंजन बन तमाल-तरु में, बसती कालिदी तीरे
शीतल सुखद समीर, जहाँ पर चलता धीरे-धीरे
या बनती मैं क्रौंच मिथुन, बस जाती तमसा तट पर
बनते गीत अमर कवि के, फिर मेरी पीड़ा के स्वर
या चकोर बन तकती रहती, सारी रात जुन्हैया