गीतों के बंद हो गए
पोर-पोर छंद हो गए
पलट रही पुरवाई पुष्ठ नए मौसम के
तोड़ रहे सन्नाटे कोकिल सुर पंचम के
गहरे अवसादों में, ठहरे संवादों में
घोल रही हैं सुधियाँ राग नए सरगम के
प्रीति की यूँ बाँसुरी बजी
प्राण घनानंद हो गए
पोर-पोर छंद हो गए
शब्द लगे अँखुआने फिर सूनी शाखों में
अर्थ लगे गहराने महुँआई आँखों में
बौराए भावों में, मौसमी भुलावों में
वायवी उड़ानों के स्वप्न लिए पाँखों में
मन ने आकाश छू लिया
हम ललित निबंध हो गए
पोर-पोर छंद हो गए।
भरमाते हैं मन को मृगजल इच्छाओं के
भटक रहे पाने को छोर हम दिशाओं के
अनबूझी चाहों के, अंतहीन राहों के
सम्मोहन में उलझे जंगली हवाओं के
खुद को ही खोजते रहे
कस्तूरी गंध हो गए।
पोर-पोर छंद हो गए।