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कविता

स्नेलह के हम दीप बारे

मधु शुक्ला


फिर चलो देहरी दुआरे
स्‍नेह के हम दीप बारें

भीतियों पर फिर उकेरें
साँतिये शुभकामना के
अल्‍पनाओं में भरे फिर
रंग सच्‍ची भावना के
रोशनी की नव किरण से
आज घर-आँगन बुहारें

ग्रंथियाँ मन की सभी
हम आज गंगा में सिराएँ
दीप लहरों में नए संकल्‍प
के फिर से तिराएँ
बैठकर तट पर मनोरम
दृश्‍य ये अपलक निहारें
           
उतर आई हो धरा पर
ज्‍यों गगन की तारिकाएँ
गा रही हैं गीत मंगल
द्वार पर शुक सारिकाएँ
रह न जाएँ आज आँखों में
कहीं सपने कुँवारे

स्‍वर्ग से संवाद करतीं
ये धवल अट्टालिकाएँ
नाचती गा‍ती थिरकती
सघन विद्युत मालिकाएँ
चिर प्रतिक्षित इस निशा पर
आज सौ-सौ दिवस वारें

फिर चलो देहरी दुआरे
स्‍नेह के हम दीप बारें
 


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