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कविता

बचपन
ओमप्रकाश तिवारी


छीन लिया खुद
हमने अपने
बच्चों का बचपन,
कभी न बूझा
हमने उनका
निर्मल-अनगढ़ मन।
 
उगता सूरज
कभी न देखा
न देखी गोधूल,
डेढ़ बरस में
प्लेग्रुप पहुँचे
ढाई में स्कूल;
पाँच बरस में
चश्मा धारे
लगते हैं पचपन।
 
मेहमानों की आमद
पर तो
बन जाते शो पीस,
एक साँस में
मंत्र सुनाने
पड़ते हैं चालीस;
मम्मी-डैडी
चाहें बेटा
दिखला दे हर फन।
 
न्यूटन के
नियमों से लेकर
कोलंबस की खोज,
क्या-क्या पढ़ें
बिचारे, भारी
बस्ते का ही बोझ;
कंप्यूटर
का गेम चाटता
है दीमक सा तन।
 
मम्मी-डैडी
सुबह निकलते
और लौटते शाम,
शहरी घर है
दादी-बाबा
का उसमें क्या काम;
 
ना वह अँगना
ना वह चंदा
ना लोरी की धुन।
 


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