छीन लिया खुद
	हमने अपने
	बच्चों का बचपन,
	कभी न बूझा
	हमने उनका
	निर्मल-अनगढ़ मन।
	 
	उगता सूरज
	कभी न देखा
	न देखी गोधूल,
	डेढ़ बरस में
	प्लेग्रुप पहुँचे
	ढाई में स्कूल;
	पाँच बरस में
	चश्मा धारे
	लगते हैं पचपन।
	 
	मेहमानों की आमद
	पर तो
	बन जाते शो पीस,
	एक साँस में
	मंत्र सुनाने
	पड़ते हैं चालीस;
	मम्मी-डैडी
	चाहें बेटा
	दिखला दे हर फन।
	 
	न्यूटन के
	नियमों से लेकर
	कोलंबस की खोज,
	क्या-क्या पढ़ें
	बिचारे, भारी
	बस्ते का ही बोझ;
	कंप्यूटर
	का गेम चाटता
	है दीमक सा तन।
	 
	मम्मी-डैडी
	सुबह निकलते
	और लौटते शाम,
	शहरी घर है
	दादी-बाबा
	का उसमें क्या काम;
	 
	ना वह अँगना
	ना वह चंदा
	ना लोरी की धुन।