इसकी-उसकी सबकी बखरी
चारो ओर मचा कुहराम।
बीन रहे हैं नीम-निबौरी
पा सकते थे चारों धाम!
पेट काट
तन-मन सुख खोकर,
खोया बचपन, धेले में दिन।
आँख-फोड़
दिन-रात पढ़ाई
छूटा हुनर, झमेले में छिन।
लेकर, मंडी
हाँक लगाएँ
चाहत बची, न मिलता दाम।
बैठे-ठाले,
फिरते रहते
जहाँ-तहाँ हैं बियाबान में।
अक्षर रखते
बैर-भाव हैं,
देखे जाते हर सिवान में।
इनके भी कब,
रोजगार हैं
सिस्टम में है पूरा झाम।
माटी में
तन माटी बोते
पोसें जठर-अनल की ज्वाला।
है लेकिन
भूखे बैतालों का
जमघट काँधे रखवाला।
पलट
करों से, बोटी नोंचें
रज साधक मरता निष्काम।
सारे हुनर,
योग्यता बंधक
कैसे हो घर में उजियारा!
दिवस-दिवस
घटना वितान का,
कहाँ पले फिर नभ का तारा?
दीप सजीं?
खोखल मीनारें,
देश भागता है अविराम।