जीवन-तार में करतब-धागे
साज रहीं बेहतर।
आज औरतें बीन रहीं हैं
जीवन का ‘स्वेटर’।
कंधे तने-तने, हैं तन में
बाजू सधे-सधे हैं।
अंगुलियों की पोर-पोर में
जादू नए बँधे हैं।
माथे तक, उठ रहीं भुजाएँ,
नाप रहीं ‘मैटर’।
‘फंदे’ घटा-बढ़ा कर बुनती पॉकेट
धरतीं बीज।
सरकातीं कंधों से फंदे-
हर अनुपयोगी चीज।
काँपें, पाँव-बेड़ियाँ, देतीं
इस्तीफा ‘लेटर’।
‘फंदे’ तजतीं तभी गिरे ‘घर’
तोहमत थी अज्ञानी।
घटा दिए गरदन के फंदे
ज्यादा-ज्यादा मानी।
गर्दन मुक्त हुई साँसें
आतीं-जातीं ‘बेटर’।
कान, आँख, सिर घूँघट-टोपा-
कोल्हू-बैल सरीखीं।
खींच गिरा, स्वाधीन इंद्रियाँ
पोषित करना सीखीं।
खुले शीश पर मुकुट सजाएँ
नाप-जोख, बेहतर।
भाँति-भाँति सिर, भाँति-कंगूरे
गढ़तीं हैं दिन-रात।
फिट जूतों के पाँव बदलकर
तड़तीं जग के घात।
टोपी, जूते, दस्तानें संग
जाँच रहीं सेंटर।