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कविता

सिंहासन घूर हुआ

शीला पांडे


तुम चौसर खेले उलट-पुलट
हर पासा चूर हुआ।
विद्रूप हँसी, उपहास तुम्हारा
चकनाचूर हुआ।

हम ‘माटी’ थे, तुम ‘सोना’ थे
हम ‘उथले’ थे, तुम ‘गहरे’ थे।
तुम पंछी-‘पर’ नभ तोल सको,
हम कुंडी, ताले, पहरे थे।
तुम ‘दाँव’ लगाए बैठे थे
सपना काफूर हुआ।

तुम आप-ताप से ‘चमके’ थे
हम नीर राशि जुड़, ठहरे थे।
हम हवा सहारे तिर निकले
तुम कुएँ-घड़े, तर लहरे थे!
तुम जीत मनाने उतरे पर
इच्छित फल दूर हुआ।

तुम आत्ममुग्ध ‘पर’ फूँक चले
हम लिए हौसले फहरे थे।
हम ओर-छोर नभ नाप, उड़े
तुम साँकल बनकर, ठहरे थे।
तुम दर्प अहम के पुतलों का
सिंहासन घूर हुआ।
 


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