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कविता

आदमी के भीतर का आदमी हारे

शीला पांडे


आदमी के भीतर का आदमी हारे
जी रहा समाज में हर कोई मन मारे

नफरत की आँधी पुरजोर इस कदर
घेर रहीं सूरज के नैनों चढ़कर
ऐसे मौसम में हैं धुंधों के पहरे
धूल झुकी आँखों हैं, कान पड़े बहरे
भूचाली शाखों में नीड़ बेसहारे
समरसता दुबके काँपे डर के मारे।

बीजों से शूल उगें, माटी से सरपत
रत्नजड़ित काया की आभा में बरकत
भीतरी भिखारी ये दाना-दाना तरसे
इच्छाएँ पर्वत-सी स्वार्थ सघन बरसे
खीझ रहा सिर पर ढोता मानव गारे
आधि-व्याधि कीट सर्प कंधों पर धारे।

बहेलिए राजा को मांस नरम-नरम
भाता है खाने में रोज गरम-गरम
ये टुकड़ी शिकारी गठन करके धारे
एक-एक पकड़े वो एक-एक मारे
धकियाते मानव को मानव ही फारे
बिरला ही कोई बच पाता है प्यारे।

 


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