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कविता

जब जब करो श्रृंगार प्रिये

नीरज कुमार नीर


जब जब करो श्रृंगार प्रिये
मैं एक दर्पण बन जाऊँ।

मैं बनूँ प्रतिबिंब तुम्हारा
ओढ़ लूँ माधुर्य सारा
लालिमा तेरे अधर की
नैन का अंजन बन जाऊँ
जब जब करो श्रृंगार...

वेणी में बन सजूँ बहार
बन जाऊँ सोलह श्रृंगार
अनुपम रूप तुम्हारा प्राण  
हार इक चंदन बन जाऊँ।
जब जब करो श्रृंगार...

तुम्हारे पायल की रुनझुन
मोहिनी गीतों की गुनगुन
बनकर दमकूँ मैं कुमकुम
कुंडल कुंदन बन जाऊँ
जब जब करो श्रृंगार...

टहक लाली सूर्ख महावर
टूट सके ना जीवन भर
माँग मध्य अमर सिंदूर
अमिट इक बंधन बन जाऊँ
जब जब करो श्रृंगार...

तुम्हारे गजरे में महकूँ
हँसी में तुम्हारी चहकूँ 
तुम्हारे अंतस बसूँ सदा
दिल की धड़कन बन जाऊँ

जब जब करो श्रृंगार प्रिये
मैं एक दर्पण बन जाऊँ
 


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