चारों और अँधेरे घेरे
रहें उजाले भी मुँह फेरे
कैसे गीत रुपहले गाऊँ
कैसे अपना मन बहलाऊँ।
आज हवा फिर गर्म बही है
अंगारों ने बाँह गही है
भ्रम के फैले हुए क्षितिज पर
कौन गलत है कौन सही है
वैसे दर्पण हैं बहु तेरे
अक्स हिलाते रहे सवेरे
मैं भी इनकी समझ न पाऊँ
कैसे अपना मन बहलाऊँ।
आँधी, धुंध, धुआँ और काजल
उमड़ रहे हैं काले बादल
विष बनतीं अमृत-सी बूँदें
झिर-झिर है सिंदूरी आँचल
जले हुए हैं रैन-बसेरे
दूर तलक पत्थर के डेरे
देख इन्हें में डर-डर जाऊँ
कैसे अपना मन-बहलाऊँ।
सारे जग की एक कहानी
फीकी पड़ गई चूनर धानी
अधरों ने रह मौन कहा है
पढ़ लो तुम आँखों का पानी
दर्द हुए हैं और घनेंरे
रहते हैं संग तेरे मेरे
कैसे इनको मैं बिसराऊँ
कैसे अपना मन बहलाऊँ।