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कविता

कुछ न कुछ करने की मन में ठान ले

रमा सिंह


कह रहा है दुख कि
सुख भी आएगा
जिंदगी के गीत फिर ले गाएगा
तू मनुज है जीत का अनुमान ले
कुछ न कुछ करने की मन में ठान ले।

पेड़ सूखे तो झरी सब पत्तियाँ
हर तरफ पसरी हुई खामोशियाँ
पर न चिंतित-सा दिखा मौसम कभी
राह में कैसी भी हो दुश्वारियाँ
खिलखिलाती ऋतुएँ फिर से आएँगी
फूल, कलियाँ, तितलियाँ मुस्‍काएँगी
मेघ झूलेगा मल्‍हारें गाएगा
अपनी रिमझिम से हमें नहलाएगा
तू भी मन में बादलों-सा गाए ले
कुछ न कुछ करने की मन में ठान ले।

देख पानी है किसे प्‍यारा नहीं
उसकी रुकती है कभी धारा नहीं
ताल, झरना, या कि वो नदिया बना
बन गया सागर, मगर हारा नहीं
दिल में उसके भी मचलती बात है
हर लहर उसका लरजता गात है
चंद्रमा से उसको कितना प्‍यार है
पूर्णिमा को उसमें उठता ज्‍वार है
तू भी वैसी चाह का संज्ञान ले
कुछ न कुछ करने की मन में ठान ले।

साँझ उतरी रात गहरी हो गई
यूँ लगा कि जिंदगी ही सो गई
इस गहनतम में छुपी वो भोर है
आस की नाजुक-सी कितनी डोर हैं
इस गगन पर लालिमा भी छाएगी
सूर्य की उजली किरण फिर आएगी
पंछी सारे चहचहाकर गाएँगे
बात अपनी इस तरह समझाएँगे
है तपन में छाँह यह भी जान ले
कुछ-न-कुछ करने की मन में ठान ले।
 


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