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कविता

सूरज उगे हाथ में

सुमेर सिंह शैलेश


कोई सूरज उगे हाथ में,
मैं तिमिरि के प्रहर तोड़ लूँ।
बाँह में भर सकूँ बिजलियाँ
दर्प के दुर्ग को फोड़ लूँ।
 
दृष्टि सिकुड़ी हुई फैल ले
क्‍यों हों संकीर्ण पृष्‍ठों के घर
एक अध्‍याय जुड़ता चले
हम उगल दें जो अपना जहर
जन्‍म ले कोख से सभ्‍यता
अवतरण को ही मैं मोड़ लूँ।

जो सवेरा रहा साथ में
वह क्षितिज में भटक सा गया
हाथ तक भी न सूझे यहाँ
यह अँधेरा जो सट सा गया
सिर्फ अपनत्‍व की हों, छुअन
शीर्ष संबंध मैं जोड़ लूँ।

जो अचर्चित रहे उम्र भर
वे ही मेरे हुए गीत-धन
जो समय संग चल न सकें
वे ही ओढ़े हुए हैं कफन
हो सृजन को भी चेतावनी
मैं मरण के भी घर होड़ लूँ।
 


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