कहाँ गए वे
दिन तुलसीचौरे के वासी।
पहले रहते थे
ये सूरज नदी-किनारे
जल पीते थे मीठे
तब घर-घाट हमारे
अब तो सुनते
बरसों से है नदी उपासी।
गुंबद-नीचे
जंगल-पगडंडी-घर खोए
सड़कों पर हैं
लोग निकलते सोए-सोए
अब के
सपने भी हैं, भाई, कन्यारासी।
जले पंख-पर
महक भोर की वे लाए थे
हमने खुद ही
आँगन अपने सुलगाए थे
अब गुनते हम
क्यों हैं साँसें सत्यानासी।