hindisamay head


अ+ अ-

कविता

एक धूप की किरण

कुमार रवींद्र


एक धूप की किरण
हमारे घर में रहती है।

जिद करती है
हर कोना-अतरी उजराने की
हमें पूर्व के गीतों का
अंतरा बनाने की
‘बाबा, धूप बनो’
वह हमसे दिन-भर कहती है।

उसकी आँखों में
सतरंगी सपने पलते हैं
उत्सव है वह
चंदा-सूरज कभी न ढलते हैं।
मौज नदी की
वह सुहास बन दिन-भर बहती है।

उसकी आँखों की शरारतें
हमको भाती हैं
खुश होकर वह
साँसों में, हाँ, झजलक समाती है
उन्हीं क्षणों में
जोत नेह की भीतर दहती है।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में कुमार रवींद्र की रचनाएँ