hindisamay head


अ+ अ-

कविता

लावा रोज झरता है

राजेंद्र गौतम


सोख कर संवेदना का जल
आग का खूनी समंदर
            दूर तक हुंकार भरता है।

चूक गईं संभावनाएँ सब निकल पाने की
दग्ध लपटों के मुहाने से
झुलसना केवल बदा है अब
कुछ नहीं होना अब व्यर्थ में यों छटपटाने से
जो मछलियों से भरा था कल
ताल जाएगा वही मर
            यहाँ लावा रोज झरता है।

संदली ठंडी हवाओं के काफिले को भी
यहाँ रेगिस्तान ने लूटा
इस लिए हर आँख का सपना
चोट खाकर काँच-सा टूटा
बालकों-सा सहमता जंगल
खड़ा लोगों के रहम पर
            आरियों से बहुत डरता है।

एक मीठी आँच होती है अलावों की
बाँटती है जो कि अपनापन
वह लपट पर और होती है
फूल, कलियों, कोंपलों का लीलती जो तन
पड़े हैं रिश्ते सभी घायल, जिस्म इनके खून से तर
            कौन लेकिन साँस भरता है।
 


End Text   End Text    End Text