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कविता

द्वार हैं सभी स्वर्ग के

राजेंद्र गौतम


कहर लदे भूरे बादल को
लाईं जो पश्चिम से
बरछी-सी
चुभती हैं वे हिमगंधी सर्द हवाएँ।

सन्नाटे को तोड़ रहा है
खाँसी का ही ठसका
बूढ़ी बस्ती की ठठरी की हर पसली करक रही
सूरज का स्वागत करने को
जाने कौन बचेगा
बुझे अलावों के पास मौत है गुपचुप सरक रही
पता नहीं कब तक नुचना है
व्यर्थ यहाँ गिद्धों से
बंद द्वार हैं
सभी स्वर्ग के आग कहाँ से लाएँ।

सद्य-जात सपनों के तन की
इन रोमिल पाँखों को
कुटिल भवों वाला संशय-सा कुहरा कुतर रहा है
दबा चोंच में उड़ जाएगा
फिर खाकी क्षितिजों को
धूसर डैने फैला कर नभ नीचे उतर रहा है
क्या अंजाम घोंसलों का
तूफानों में होता है
चीड़ों के
ठिठुरे तन कैसे चिड़ियों को बतलाएँ।
 


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