मन की सुई से
इच्छाओं के रंग-बिरंगे धागे लेकर
दुख-सुख की कमीज सिलती हो।
कभी न फुर्सत से मिलती हो।
बनी अलगनी
अपने कंधों टाँगे रहती
फटे-पुराने कपड़ों जैसी
सबकी चरित-कथाएँ,
चुप्पी साधे
घूँट-घूँट पीती रहती हो
जीवन-प्याले भरी हुई
विष बुझी व्यथाएँ।
पूजा-घर-सी बना गृहस्थी
चंदन-गुलाब की गंध बनी हुई
अगरू-शलाका-सी तुम हरदम जलती हो।
तिनका-तिनका
नेह जोड़ गौरैया जैसा
संवेदन की डाली ऊपर
बना रही तुम एक घोंसला,
कर जाती हो पार
विपत का तूफानी नद
लहरों से टकराता रहता
सदा तुम्हारा गजब हौसला।
दुख रजनी की बेला बीती
किसी दूसरे की सुख-डंठल
गंधवती ताजी कलिका-सी तुम खिलती हो।