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कविता

किस्से रक्तबीज

श्यामसुंदर दुबे


किस्से कभी
खत्म नहीं होते हैं
रक्त बीज जैसे वे
अपना बीज बोते हैं।
 
किस्सा है
सो आदमी के पास है
अपना एक पड़ोसी,
जो बाँटता है
उसका दुख-दर्द
चुपचाप ओढ़े खामोशी

बैलगड़िया
हाँकता है बैलगाड़ी
आधी रात में
जागते हैं किस्से
जो उसके सीने में सोते हैं।

वह हैरान है
कि रातों में ही
क्यों आते हैं किस्से पैदल-पैदल,
किस्सा
काल का प्रवाह है
उसी से लेता है वह अंगुरी भर जल

इसी थोड़े-से
स्पंदित जल के भीतर
ब्रह्मांडों के समूह
लगाते रहते गोते हैं।
 


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