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कविता

अम्मा

राम सेंगर


जीने की जिद-सी है आई
अम्मा लेश नहीं डरती है।

है तहजीब बदल की कैसी
कहते-कहते फट-सी पड़ती
घटनाओं की लिए थरथरी
पीछे लौटे-आगे बढ़ती
दिनचर्या पर चीलें उड़तीं
झोंक स्वयं को कठिन समय में
लड़ने का वह दम भरती है।

चौलँग तमक अराजकता की
कुछ भी करो, खौफ काहे का
इस दर्शन ने रह-रह तोड़ा
नर-नारी का अकलुष एका
कामुक, क्रूर, नजर की कुंठा
चीरेगा अब यही त्रियाधन
हाथ होंस का सिर धरती है।
 
आहत हैं, स्वर-मूल्य-भावना
तो भी हम में समझ जगाए
मुर्दा तंत्र, समाज निकम्मा
असुरक्षा पर होंठ चबाए
है महफूज न औरत कोई
शहतूती विधान को लेकर
प्रबल विरोध खड़ा करती हैं
अम्मा लेश नहीं डरती हैं।
 


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