का हो गुरू बहुत खुश हो क्या
भौजी की चिट्ठी आई है।
आँख गड़ाकर अँधियारे में
कितनी बार पढ़ोगे बोलो
तीन बरस हो गए इस बरस
कहो सेठ से ‘छुट्टी ले लो’
बड़ी-बड़ी आँखों से टपके
आँसू के धब्बे तो देखो,
‘‘महँगाई तो जनम जुगाती’’,
क्यों रोते हो महँगाई है।
‘‘बाबू का करजा उतारने
घर से भागे थे कुछ करने
क्या कर लिया यहाँ दिल्ली में
लोहा पीट-पीट कर हमने
गिरवी पिता अभी तक गिरवी
‘बहन’ खड़ी है अभी कुँवारी,
‘बाबू की लंबी बीमारी
मरने ही वाली ‘माई’ है।
छूट गई है मेरी ‘हिरनी’
छूट गया मेरा ‘यहुआपन’
छूटा ‘झरनों’ वाला पानी,
घिरा हुआ पेड़ों से ‘आँगन’
मार रहा हूँ इसी ‘निहाई’
पर, उन सबको मन ही मन में,
‘जल’ ‘जमीन’ ‘जंगल’ पर आरी
जिन लोगों ने चलवाई है।