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कविता

माथे हाथ धरे बैठा है

अवध बिहारी श्रीवास्तव


माथे हाथ धरे बैठा है
थका-थका चंदर
सूखा आया बीज खा गया
बाढ़ खा गई घर।

उठी ‘चंगेरी’ झउवा लेकर
साफ किया आँगन
जो दीवारें बची हुई थीं,
रखवाया छाजन
थोड़ी जगह बनाकर पटरे
डाल दिए उसने,
चौके का सामान सहेजा
आँसू पी पीकर।

सुनो खेत खाली हैं फिर से
अब आलू बोना
गंगा मइया चाहेंगी तो
बरसेगा सोना
‘खाद-बीज’, कर्जे पर लेने की
मत बात करो,
सीधे-सीधे कंगन बेंचो
क्या होगा रखकर।

दोनों चिंतित हैं कैसे हो
बिटिया की शादी
बिटिया की आँखों में तिरती
‘घर की बरबादी’
सीधे जाकर मिली गाँव के
लड़के से लड़की,
अभी कचेहरी से लौटे हैं
‘‘पति-पत्नी’’ बनकर।
 


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