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कविता

उँगलियों में छोह लेपे

अनूप अशेष


रात चकरी सुबह जाता
बीच में
हमको बचाने
देखिए अब कौन आता।

श्मशानी रात का संगीत
सुनतीं लालटेनें,
एक अंधा आईना ले
लोग आते
रहे देने
गाय के सूखे थनों में
बछड़ा
मुँह लगाता।

धूप की बरसात है
ये दिन बड़े हैं,
काम हाथी-पाँव
लेकर
रहे दरवाजे खड़े हैं
घरों के गमछे फटे हैं
छाँह का
छिद गया छाता।

दरे थे फिर गए पीसे
और आगे राम जानें,
स्वप्न आने
नहीं पाए
गए जीने के बहाने
उँगलियों में छोह लेपे
बघनखा
हमको डराता।
 


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