जो भी था
अपने भीतर का होना था।
भीतर से
बाहर के आँधी
पानी में,
चलना हुआ अकेले
खींचातानी में
कुछ दाने अँकुरे
अपना ही बोना था।
फूटे जो फोड़ों-से
उनमें चेहरे थे,
चेहरों में
सोच के
द्वीप इकहरे थे
लंबी थी जल-राशि
नाव का ढोना था।
मीलों का चलना था
छोटे पाँवों का,
आँखों से
मन तक था
कहर हवाओं का
अपने मूँगे-मोती
लड़ी पिरोना था।