दिन थे नाव नदी के
	कुल के।
	
	पाट बड़ा था
	धार यहाँ रेतों में सोई,
	अपनों ने
	थी यहीं कहीं पर
	आँखें धोई
	बैठे से कुछ लोग रह गए
	नीचे पुल के।
	
	अजब रहा संयोग
	कि, पानी प्यासा ढूँढ़े
	बजती हुई
	रेत मुँह की
	पक गए मसूढ़े
	मछली वाली धूप हो गई
	साथ बकुल के।
	
	धोए थे जब हाथ
	नदी ने दुख पूछा था,
	किसी घाट का
	पानी सूखा
	मन छूँछा था
	बैठे हुए किनारे कह ना
	पाए खुल के।