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कविता

खड़ी हई कुंठाएँ

ओमप्रकाश सिंह


कहो कबीर
आज बस्ती में
खड़ी हुई कुंठाएँ।

मन का कलुष
धुलेगी कैसे
लोभ-मोह की गागर
तृष्णा के घर
माया नाचे
माया के घर नागर
प्यासे मन की
जंजीरों में
बँधी हुई आशाएँ।

इच्छाओं की
कई तितलियाँ
सपनों की क्यारी में
पंचतत्व का
नर्तन होता
देह भरी थारी में
खिड़की-खिड़की
दस्तक देतीं
कुछ विषबुझी हवाएँ।

देहरी पर
परछाईं बैठी
अंहकार सिंहासन
पिंजड़े-पिंजड़े
पंख बँधे हैं
हिंसा का अनुशासन
युग-संदर्भों में
मन अटका
झूल रहीं पीड़ाएँ।
 


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