पंख कुतरने को आए थे
खुद के पंख कटे
चले बुझाने ये अँधियारे
उजियारे के दिए।
चंदन वन से
बाँस वनों तक
उनका है साम्राज्य
शोषणकर्ता के दरवाजे
खड़े हुए अभिजात्य
मंत्र-मुग्ध करने की ठाने
सपने फटे सिए।
भाषाएँ
संस्कृतियाँ सारी
फिर गिरवी रख दीं
अमनचैन आशाएँ घर की
कर दीं बेदखली
इच्छाएँ
प्रतिकूल सड़क पर
गिरीं सोमरस पिए।
रिश्ते-नाते
धर्म-न्याय के
बूते कुछ न हुआ
नहीं चीन्हते
प्रेम-संधि को वंश वृक्ष के सुआ
अहंकार के
आजू-बाजू
छल की बेल जिए।