अलकनंदा
अब तुम्हारा नाम
सुनकर डर लगे।
पर्वतों से
साँठ-गाँठ करके
ढही तुम बस्तियों पर
मेघ की-सी
क्रूरता लेकर गिरी थी
कस्तियों पर
क्या विवशता को
तुम्हारी
कालकवलित पर लगे।
गिरी बिजली
ढहे पर्वत
पेड़, पक्षी और नदियाँ
मर रही थीं वेदनाएँ
स्वप्न को भी
लिए कनियाँ
जो समय
हिंसक हुआ था
वह खड़ा बाहर लगे।
टूटने ही टूटने
फिर दर्द की
अंगड़ाइयाँ
शोर था जल का
मिथक बन
सोखती थीं खाइयाँ
निरंकुश
उन घाटियों से
बह रहा जहर लगे।