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कविता

चेहरे गाँवों के

गुलाब सिंह


गिरे दिनों को
चले उठाने
नई सदी के नए कमाल।

बाँस बड़े हैं
सीढ़ी वाले
ठाले पायदान के लेकिन
पाँवों की
अदृष्य बेड़ी से
सट जाते चुंबक से दुर्दिन
उठे पाँव वापस आ जाते
समतल भी बन जाते ढाल।

भोजन घर
जब मुफ्त खिल गए
हाथ-पाँव हो चले अपाहिज
गाँवों के
चेहरे बदले
निश्छलता पर मक्कारी काबिज
राजनीति का पेड़ अनोखा
हर आँगन में लटकी डाल।

खेती हुई
गले की फाँसी
गया कबाड़ों में हल हेंगा
गुमसुम
कला शिल्प पुश्तैनी
गूँजे मनरेगा-मनरेगा
मिट्टी की टोकरी सिरों पर
चमके ज्यों चाँदी का थाल।
 


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