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कविता

औरत

गुलाब सिंह


चीकट की पर्तों में
रोटी का टुकड़ा
भीड़ ने कहा
लेकिन है लजीज मुखड़ा।

ये आँखें सामाजिक
दृष्टिकोण हेतुक
तर्क या विचारों की
सारणियाँ अलौकिक
प्रतिमा भर पूजन
पहाड़ों पर दुखड़ा।

चाहत का रम्य राग
प्यार की मोटी किताब
भरी गोद में भविष्य
चुनरी में लगा दाग
कंधों पर बैठा घर
किस कारण उजड़ा।

जंजीरें खनकीं
उठ गिरती मधुबाला
प्रतिबंधों पर लटका
और एक ताला
हाथ रहा बँधा सदा  
पाँव रहा उखड़ा
भीड़ ने कहा
लेकिन है लजीज मुखड़ा।
 


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