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कविता

धूप की गठरी

शांति सुमन


एक लड़की सुबह उठती
धूप की गठरी उठाए
निकलती घर से।

रास्ते में बात करती धूल से
चौतरफ निखरे हुए बबूल से
आँख में चिनगी सँभाले
निकलती घर से।

समझाती नदी, चिड़िया धूप को
बिचड़े रोपे धान के रूप को
देह की दुनिया बचाए
निकलती घर से।

कौन उजला था मौसम उन दिनों
अनदिखे भी दीखा था पल छिनों
आँख के जल में नहाए
निकलती घर से।

गीत ताजे मन से गुनगुनाती
सहज नदी-झील-झरने जगाती
कई जिद मन में जुगाए
निकलती घर से।

 


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