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कविता

रोये से कचनार

शांति सुमन


खुशबू चली हवा के घर से
रोये से कचनार
जैसे बढ़ते पाँव विदा के
            मन के फाँक हजार।

आशीषों में हाथ उठे हैं
अड़हुल के जूही के
खेतों के मेंड़ों पर बादल
आते हैं फूही के
दोनों पाँव महावर भर के
चलती दो पग चार
महफा के झालर में उड़ते
            रंग नहाए द्वार।

टहनी की आँखें भर आई
लहरों ने मुँह पोछे
हरियाली के नए बाग में
मन ही बन अंगोछे
भीतर ही भीतर कुछ दरके
नेह नयन अँकवार
मन से मन की बात हुई है
            रंगे खत में प्यार।
 


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