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कविता

समय की नदी

माहेश्वर तिवारी


हम समय की नदी
            तैर कर आ गए
अब खड़े हैं जहाँ
            वह जगह कौन है।

तोड़ते-जोड़ते
हर नियम, उपनियम
उत्सवों के जिए
साँस-दर-साँस हम

एक पूरी सदी
            तैर कर आ गए
अब खड़े हैं जहाँ
            वह सतह कौन है।

होंठ पर
थरथराती हँसी
रोप कर
आँसुओं को पिया
आँख में उम्र भर

हम कठिन त्रासदी
            तैर कर आ गए
अब खड़े हैं जहाँ
            नागदह कौन है।
 


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