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कविता

ये वृक्ष

कुमार शिव


याचक बन कर कृपण सूर्य का
झुक-झुक कर वंदन करते हैं
ऊँचाई पर खड़े हुए ये वृक्ष
बहुत बौने लगते हैं।

भ्रम है इनको
जब चाहें ये, आसमान
मुट्ठी में भर लें
जब चाहें तारों को तोड़ें
चंदा को सिरहाने रख लें
दरबारी हैं ये पर्वत के
अंधड़ आने पर हिलते हैं।

अभिमानी हैं,
इनके सर पर
अहंकार के सींग उगे हैं
इंद्रधनुष कंधे पर लादे
मेघों के ये
गले लगे हैं
इनकी तारीफें कर-कर के
होंठ हवाओं के छिलते हैं।
 


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