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कविता

छत पर दोपहरी
कुमार शिव


आधे मुख पर धूप खिली है
आधे पर काला बादल
गीले केश सुखाती
छत पर दोपहरी।

लहराती है ऐसे जैसे
शाख छरहरी सरसों की
उसे देख कर जगता है
पहचान हो जैसे बरसों की
उसकी हँसी लपट जैसी है
आँखों में तीखा काजल
जादू-सा कर जाती
छत पर दोपहरी।

खिलते हैं पलाश गालों पर
उड़ता बसंती अँचरा
पढ़ता पवन झकोरा उसके
कंपित होंठों की भाषा
बाहर बिखरा है सन्नाटा
भीतर यौवन की हलचल
मधुर-मधुर मुस्काती
छत पर दोपहरी।
 


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