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कविता

बेल धूप की
कुमार शिव


बेल धूप की सूख चली है
दिन है टूटे गमले जैसा।

लेटे हुए पिता आँगन में
टूटे हुए तानपुरे से
धूल धूसरित वीणा जैसी
खड़ी हुई कोने में अम्मा
झूले पर उदास बैठी है
बाँसुरिया सी प्यारी बहिना
रोज पूजती तुलसी-चौरा
देती मंदिर की परिक्रमा
थाप वक्त की पड़ती है
मैं बज उठता हूँ तबले जैसा।

जाने कब से बंद पड़ी है
दादाजी की घड़ी पुरानी
मकड़ी के जाले चिपके हैं
चूना झरती दीवारों से
इधर-उधर बिखरीं आँगन में
नीली हरी सफेद शीशियाँ
फटे-पुराने अखबारों से
लदा हुआ कोल्हू का छप्पर
घर चाहे टूटा-फूटा है
फिर भी महल-दुमहले जैसा।
 


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