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कविता

सूरज चरवाहा
कुमार शिव


मेघ, श्वेत-भेड़ों जैसे
चरते हैं नभ के चरागाह में
छड़ी हवा की लेकर इनको
हाँक रहा सूरज चरवाहा।

पकी धूप की
कटी फसल के ढेर लगे हैं खलिहानों में
फिर भी दिखता है विषाद  
संध्या की झिलमिल मुस्कानों में
बुझने को है दिवस
अँधेरा शीश झुकाए खड़ा राह में
नीले पर्वत के पीछे से
झाँक रहा सूरज चरवाहा।

दूर उधर, पश्चिमी दिशा में
रंगबिरंगे फूल खिले हैं
हरा हो गया क्षितिज
परस्पर नीले-पीले रंग मिले हैं
बँधी हुई सतरंगी रस्सी
इंद्रधनुष की, धूप-छाँह में
उस पर अपना पीला गमछा
टाँक रहा सूरज चरवाहा।

धूल उड़ाते दौड़ रहे हैं
अंधड़ जमींदार के घोड़े
हिलते वृक्ष बने सैनिक
फटकार रहे शाखों के कोड़े
मौसम की निर्दयता ने
भर दिया दर्द भोली निगाह में
पथराई निरीह आँखों को
ढाँप रहा सूरज चरवाहा।

 


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