हिला-हिला कर पंख
भीतरी पलकों के
खिड़की से उड़ चले
परिंदे आँखों के।
है इनको उम्मीद
अमावस्या में भी
पर्वत के पीछे से चाँद निकलने की
देख रहे हैं
उलट-पलट कर मेघों को
आशा रखते खोया चेहरा मिलने की
चली हवा बज उठीं चुटकियाँ
पत्तों की
हिले हाथ बरगद की
बूढ़ी शाखों के।
बैसाखी लेकर
कुछ भीगी स्मृतियाँ
हरी घास पर धीरे-धीरे चलती हैं
टूट गया जल पात्र
मछलियाँ रिश्तों की
तड़प-तड़प कर अंतिम साँसें गिनती हैं
मधुर सीटियाँ बज उठतीं
दीवारों में
जब भी बाहर आती हवा
सुराखों के।
असहनीय विपदाओं की
रेतीली आँधी
सूखे हुए दरख्तों को बाँहों में जकड़े है
नटखट बालक-सा
शरारती वक्त
सूर्य का अक्स, झील से बाहर
लाने की जिद पकड़े है
कागज के मस्तूल
मोम की पतवारें
हम हैं सहयात्री
मिट्टी की नावों के।