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कविता

खाल चीते की

कुमार शिव


साँझ आई है
पहन कर खाल चीते की।

बैठ कर उँकड़ू किनारे पर
नदी में झाँकती है
लाल केशों में चटीला
चाँदनी का बाँधती है
चाँद पीला
फाँक जैसे हो पपीते की।

धुआँ उठता है
सुनहरी राख उड़ती है गगन में
याद के सूखे हुए बरगद
हरे होते हैं मन में
बुझ रही है आग
सूरज के पलीते की।

भीड़ पौधों की लगी है
मेघ का भाषण हुआ है
फिर हवा की कैंचियों से
वन का उद्घाटन हुआ है
कटी शेखी
गुलमुहर के सुर्ख फीते की।

पेड़ जितने भी हरे थे
सब तिरस्कृत हो रहे हैं 
ठूँठ इस अँधेरे जंगल में
पुरस्कृत हो रहे हैं
कर रहे हैं
वंदना सब पात्र रीते की।
 


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