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कविता

गंध गायब है

अश्वघोष


वक्त के
अनगिन दबावों से,
गंध गायब हैं गुलाबों से।

सिर्फ काँटेदार टहनी है
देह जिस पर रहन रहनी है
रक्त भी
रिसने लगा है अब,
जिस्म के अनजान घावों से।

मन यहाँ बे-मन सभी के हैं
तितलियों के रंग फीके हैं
प्रश्न करता है
अगर कोई
बेरुखी झरती जवाबों से।

राम जाने अब कहाँ जाते
फूल पर भौंरे नहीं आते
लोग पाना
चाहते हैं हल,
बागबानी की किताबों से
गंध गायब है गुलाबों से।
 


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