एक अँधेरी-सी तनहाई
काम न आए दिया सलाई,
कैद हुए हम अपने अंदर।
घिरे हुए अंतरद्वंद्वों से,
अतुकांत उलझे छंदों से
उजियारे ने
हमें छोड़कर,
ढूँढ़ लिए अँधयारे मंजर।
कल्पवृक्ष भी अब मुरझाया,
सारा कामधेनु ने खाया
सब उजड़ा
आँखों के आगे,
शेष बचा अभिशापित बंजर।
चलो, यहाँ तक तो हम आए
कल क्या होगा? कौन बताए?
चिढ़ा रहा
रह-रह कर हमको,
गर्दिश का इक शुष्क समंदर।