फुनगियों पर धूप चढ़ गई
किरणें दीवारों से फिसलने लगीं
ललाने लगे सूर्य पिता
बड़े पिता ने हाथ जोड़ा
ओझल होते सूर्य पिता को
(शायद मन ही मन यह कहते हुए
कि आप संध्या के घर जाइए
मैं अपनी सथरी* में चलता हूँ।)
सुबह जब सूर्य किरणें -
आँगन की देहरी पर दस्तक देतीं
दीवार में ओढ़क धूप में फिर बैठ जाते बड़े पिता
ठंड के दिनों में -
बड़े पिता और सूर्य पिता में
यह आत्मीय जुगलबंदी चलती रहती
सुबह जब हम सब साथ होते
धूप में ही बड़े पिता
अपने धूप-घोटे दिनों के किस्से सुनाते
पूर्वजों पर पोथियों पर
कुछ होनी-कुछ अतिरेक भी कह जाते
उमड़ती-घुमड़ती भावुकता में
वे कभी अचानक कहते -
देखो! एक समय यही आदमी
गिर-गिर कर खड़ा हो जाता है
तुतला-तुतला कर शब्दों को सीख लेता है ठीक से
पकड़ लेता है लोक-व्यवहार अटक-अटक कर भी
लेकिन इस पड़ाव पर यही लगता है -
कि अपना सब कुछ कह देना चाहिए
अनकहा नहीं रहना चाहिए कुछ भी
वर्षों पूर्व बड़े पिता की विदा के बाद
अपनी कविता में बड़े पिता से भेंटते हुए
सोचता हूँ -
शायद आदमी को मौन से पहले
बहुत मुखर होना होता है।
* ‘सथरी’ धान के पैरा का ठंड के दिनों में एक बिछावन है।