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कविता

प्रेम में जीती हुई स्त्री

अंकिता रासुरी


कुछ न कुछ बदलता चला जाता है अंतर्मन के हिस्से में
एक उदास प्रेम करती हुई स्त्री
यकायक को जीने लगती है प्रेम को
कुछ व्यस्तताएँ घेर लेती हैं उसे
जिनमें वह खोज लेती है कभी फ्यूंली तो कभी राजुला को
इतिहासों और किंवदंतियों के खानों से
और पुराने किले में जगह तलाशते प्रेमी भी उसे अपने ही लगने लगते हैं
तभी लगता है.. सल्तनतों की दासियाँ / बेगमें एक बार फिर जागी हैं
एक उदासी और बेख्याली में
और बादशाहों को छोड़कर
दौड़ पड़ती हैं अपने अपने हिस्से के जीवन के लिए
हाथियों की टुकड़ियाँ के साथ बेजान से पड़े राजा
कर देते हैं समर्पण
और वो प्रेम में जीती हुई स्त्री अकेले ही
कर रही होती है पार
भीड़ भरे रास्तों को।


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