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कोई राग थिरकता है मेरे भीतर
झिलमिलाती साँझ में
मैं निकल पड़ती हूँ बीहड़ हवाओं से होते हुए
किसी नदी के किनारे
जीवन के अनछुए-अनकहे पहलुओं से रूबरू होते हुए
तुम भी वहीं कहीं होते हो, हाँ वहीं कहीं होते हो
जब भी छुआ मैंने किसी नदी का पानी
मेरे होंठ महसूस करते हैं एक अजब प्यास को
जब भी चहचहाईं मेरे गाँव की घुघूतियाँ और हिलांस
तभी मैंने जाना कि
ऋतुओं का आना जाना क्या है
यही ऋतुएँ गाती हैं गीत प्रेम का
और तुम सो जाते हो भीतर किसी जंगल की तरह
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