परी-कथाओं-सी मोहक तारों-भरी वह रात - इतनी संपूर्ण और जादूभरी थी कि उसके आकर्षण की डोर में बँधे हम सभी गोल-गोल घेरा बनाकर बैठ गए, मंद-मंथर बहती हवा, महकते बेला फूल और देवदारु के झुरमुटों से छनकर आती चाँदनी... हम पर अलौकिकता का वह दौरा पड़ा कि हम सभी रोटी-लँगोटी की बात भूल जीवन और अनुभूतियों की बातें करने लगे। एकाएक श्यामली दी ने मुझसे पूछा, ''जानते हो, दुनिया का सबसे बड़ा सुख क्या है?'' मैं गोबर गणेश की तरह आसमान की ओर ताकने लगी, जैसे वहीं से उतरेगा कोई जवाब। वे मुस्कराईं और बोलीं, ''दुनिया का सबसे बड़ा सुख है निस्वार्थ सात्विक सुख।''
हमारी टोली के सबसे छोटे सदस्य श्रीकांत के माथे पर सिलवटें गहराईं, ''यह किस चिड़िया का नाम?''
जिंदगी का सारा रहस्य जान लेने वाले आत्मविश्वास के साथ वे मुस्कराईं, ''जिसने यह नहीं जाना, जानो उसका जीवन डस्टबिन पर मँडराते आत्मतृप्त कॉकरोच-सा।''
श्रीकांत ताव खा गया, ''तो बताइए, आपने ही कब भोगा इसे?'' कुछ उस रात का तिलस्म, कुछ हमारा आग्रह... रफ्ता-रफ्ता श्यामली दी पीछे घूम गईं। रसीले फानूस आम की तरह टप-टप टपकती स्मृतियाँ। चाँदनी-सी एक उज्ज्वल रेखा उनके अधरों पर उभरी।
सरसराते पत्तों की आवाजों के बीच गूँजने लगी उनकी आवाज - ''मेरे जीवन के सबसे मचलते हुए दिन थे वे। पक्षी की पहली उड़ान की तरह ही रोमांचित, मैं उन दिनों सिनी आशा में थी।''
''सिनी आशा! वह क्या?'' मैंने और श्रीकांत ने एक साथ पूछा।
''कोलकाता में रहते हो और 'सिनी आशा' का नाम नहीं जानते? स्ट्रीट चिल्ड्रेन के लिए सबसे नामी स्वयंसेवी संस्था है यह सिनी आशा।'' उन्होंने दाएँ हाथ की चूड़ियाँ ऊपर खिसकाईं और फिर प्रवाह में बहने लगीं - ''हाँ, तो मैं बता रही थी कि अनुभवों की पूँजी बटोरने के वे मेरे सबसे समृद्ध दिन थे... हर दिन कुछ न कुछ अजूबा देखने को मिलता। पहले दिन ही मजा आ गया। जैसे ही सिनी आशा की दहलीज पार करने लगी कि देखा, बाहरी दीवाल पर किसी मसखरे ने लिख मारा था, 'देखो, देखो, गधा मूत रहा है।' मैं अवाक् इतनी साफ-सफाक सफेद दीवाल पर कोयले से यह किसने लिख मारा? सुरक्षा गार्ड ने हँसते हुए बताया, 'यह तपती दी की खोपड़ी से निकला है। जिसको देखो जीप खोलता और गंगाजल बहा देता... रात को मारे बदबू के हम लोग सोने न सकता। कितनी ही बार लिखा - पिसाब करना मना... पर कौन सुनता... तो तपती दी ने गुस्सा कर ऐसा लिख मारा।'
'''बहुत खूब!' मैं ऊपर पहुँची तो देखा, झुंड के झुंड में पसीने की गंध से बजबजाती, उठंग साड़ी पहने करीब चालीस-पचास महिलाएँ एक बड़े-से कमरे में उजबक की तरह बैठी हुई हैं। पता चला सियालदह प्लेटफॉर्म, झुग्गी-झोंपड़ियों और फुटपाथों पर रहनेवाली ये वे महिलाएँ हैं, जिनके बच्चे सिनी आशा द्वारा किसी चैरिटेबल या अर्द्ध-चैरिटेबल हॉस्टल में भेज दिए गए हैं। इन सबके बीच तृप्ति दी बड़े तृप्त भाव से उन्हें समझा रही थीं - 'दया करके आप लोग महीने में कम से कम एक बार अपने बच्चों से अवश्य मिलने जाएँ... आपको ताकते-ताकते आँखें बाहर निकल आती हैं बेचारों की।'
''इधर माताएँ मुड़ीं कि उधर तृप्ति दी फिर चालू - 'अब इन्हें भी क्या दोष दूँ... यहाँ हर चीज का टोटा। अब बच्चों को मुफ्त हॉस्टल में डाल भी दिया तो जाने-आने के भाड़े का जुगाड़ मुश्किल, जुगाड़ हो गया तो दिन-भर की खटनी से समय निकाल पाना और भी मुश्किल, तो यह तो है हाल...' कमर में पल्लू खोंसते हुए तृप्ति दी ने चिंता-भरे स्वर में कहा।
'''यह तो है हाल' तृप्ति दी का सबसे प्यारा जुमला था, जिसे वे गाहे-बगाहे जब-तब हर व्यक्ति और स्थिति पर जड़ दिया करती थीं। उस दिन शाम को वे घर के लिए मेरे साथ ही निकलीं। मौका पाकर मैंने पूछा, 'यह सिनी आशा क्या किसी बंगाली बाबू की देन है?' वे फिर चालू हो गईं - 'अरे नहीं, यह तो किसी आयरलैंडवासी ने बनवाया था। अब देखो, यह तो है हाल, आया तो था यहाँ तफरीह करने, आत्मा-परमात्मा, जन्म-पूर्वजन्म, मंदिरों और विभिन्न आस्थाओं वाले इस देश को जानने-बूझने, पर मन रमा यहाँ की कालाहाँडी में। कहते हैं कि धूल में रेंगते-रिसते, फुटपाथों पर रोते-कलपते, बच्चों, नशे एवं कुटेवों के शिकार किशोरों और लालबत्ती इलाकों की जख्म-खाई किशोरियों को देख वह विचलित हो उठा और उसने इस संस्था की नींव डाली और जाते-जाते कह गया... जिस परम तत्व और परमात्मा की खोज में मैं आया था, उसके मर्म को पा लिया...'
''पान की गिलौरी को दाएँ से बाएँ घुमाते हुए वे फिर चालू हो गईं - 'अब तुम्हीं देखो, इतने बड़े कोलकाता में जितने भी नशेड़ियों, फुटपाथियों और अनाथ बच्चों, दबे-कुचले बच्चों या वासना की शिकार हुई युवतियों के लिए स्वयंसेवी संस्थान हैं, वे सब ईसाइयों द्वारा स्थापित हैं, तो यह है हाल... हम भारतीयों को तो पूजा-पाठ, धर्मशालाएँ, तीर्थ-यात्रा और मंदिर-निर्माण से ही कहाँ फुर्सत है।'
'''इन्हें विदेशों से फंड मिल जाता है,' मैं बीच में ही बोल पड़ी थी।
''मुझे तेजी से काटते हुए कहा - 'न... न... ऐसी बात नहीं वरन् मुझे तो लगता है कि यह इसलिए है कि इन्होंने धर्म को जीवन और रोटी से सीधा जोड़ इसे फुटपाथों और झुग्गी-झोंपड़ियों तक पहुँचाया है जबकि हमने धर्म की ऊँची उड़ानें भरी हैं, अपने परिष्कृत रूप में हमारे यहाँ धर्म की शुरुआत अंतर्यात्रा से होती हुई अंतःकरण की शुद्धता और परम तत्व की प्राप्ति पर खत्म हो जाती है, अब तुम्हीं देखो... उस आयरलैंडवासी के हृदय में कितनी मानवीय और महीन बात आई कि जिन किशोरियों को हम भविष्य नहीं दे सकते, कम से कम रात-भर के लिए नाइट-शेल्टर की व्यवस्था कर उन्हें भविष्य के लिए बचाकर तो रख सकते हैं।'
''पान की गिलौरी को बाएँ से दाएँ घुमाते हुए किसी तत्व-दर्शक की तरह फिर उन्होंने एक पते की बात कही - 'जानती हो श्यामली, मैं कई बार सोचती हूँ कि हमारे यहाँ क्रिश्चिएनिटी जैसे स्थूल धार्मिक सिद्धांतों की जरूरत है क्योंकि हम तो अभी तक रोटी और लँगोटी की जरूरत से ही ऊपर नहीं उठ पाए हैं और उनको चेतना, अंतरात्मा, वेदांत और उपनिषद् की... जिससे अतिभोग और अतिचार के मारे वे यहाँ की त्याग और तपस्या की अवधारणा से संतुलित और अनुशासित हो सकें।'
''बात पूरी कर भी नहीं पाई थीं तृप्ति दी कि तभी हलका-सा हो-हल्ला सुनाई दिया, एक फील्ड वर्कर दौड़ती आई, 'तृप्ति दी, झुनिया और मंगला के माई-बाप आए हैं।'
''कमर में पल्लू खोंसे जीवन से झल्लाई किसी बूढ़ी की तरह तृप्ति दी फिर बड़बड़ाईं, 'जीना हराम कर रखा है इन लोगों ने।' सीढ़ी की रेलिंग को पकड़े, किसी बोरी की तरह लुढ़कते-ठुमकते तृप्ति दी नीचे ऑफिस में...।
''जिंदगी का बोझ ढोती पसीने से लथपथ एक देह। बरसाती फफूँद-सी बढ़ी दाढ़ी। जैसे ही तृप्ति दी घुसीं झुनिया के पिता ने हाथ जोड़े। थोड़ी ही देर बाद खोखले तने की तरह सूखी एक मरगिल्ली स्त्री भीतर आई और उस पुरुष के पार्श्व में सहमी-सी सिमटी बैठ गई। हवा में कड़वे तेल और पसीने की मिली-जुली गंध फैल गई।
''अपनी भेदती तिरछी आँखों से तृप्ति दी ने दोनों का ऊपर से नीचे तक मुआयना किया। उनकी बदहवासी और घबराहट देख तृप्ति दी तृप्त हुईं और फिर कड़कती आवाज में गरजीं - 'बेटियाँ हैं या शैतान की औलाद! क्या खाकर पैदा किया था? दुर्गा-दुर्गा, हमारे तो स्टाफ की जान ही चली जाती... आपनि एक्खुन ही निये जान... दरकार नहीं बाबा! (आप अभी तुरंत ले जाइए इन्हें... हमें जरूरत नहीं इनकी) माँगो कि, दुस्साहस! (बाप रे! कितना दुस्साहस)।'
''दोनों के चेहरों पर काली रात का अँधेरा पसर गया। आखिर उस पुरुष ने हिम्मत कर हाथ जोड़ते हुए मुँह खोला, 'माई-बाप बस एक बार दया करें। इन लड़कियों का उतना दोष नहीं, हम लोगन ने ही उन्हें समझाया था कि किसी भी अनजान आदमी के साथ मत निकलना, वे बच्चा-चोर होते हैं, बच्चों को मार डालते हैं...' बोलते-बोलते वह अपनी उठंग धोती के छोर से माथे पर उग आए पसीने को पोंछने लगा। सामने से टूटा हुआ दाँत और चेहरे का पिलपिलापन उसे अजीब ढंग से दयनीय बना रहा था, इस कदर कि तृप्ति दी कड़की भूल ढीली पड़ीं। आँखों में नमी उभरी। अपनी हिंदी-बांग्ला मिश्रित भाषा में वे कहने लगीं - 'ठीक है, एक बार माफ किया... पर आगे से उन्होंने ऐसी हरकत की तो कान धरे बाहिर कोरे दिबी (कान पकड़ बाहर कर दूँगी)।'
''किस्सा कोताह यह कि मंगला और झुनिया का पिता रंग-मिस्त्री था और माँ सब्जी बेचती थी। दोनों बच्चियाँ घर में अकेली रहती थीं, इस कारण उनके पिता ने उन्हें समझाया था कि वे किसी भी अनजान स्त्री-पुरुष के साथ न हो लें। इस बीच पाड़े (मुहल्ले) के किसी व्यक्ति ने रंग-मिस्त्री को सिनी आशा के बारे में बताया। सिनी आशा द्वारा उसकी दोनों बेटियों को लक्खीपुर स्थित काकदीप हॉस्टल (सियालदह से 90 किलोमीटर दूर, अर्द्ध-चैरिटेबल हॉस्टल) में भेज दिया गया। माँ-बाप भी हॉस्टल साथ गए। माँ-बाप को वापस लौटते देख दोनों फूट-फूटकर रोने लगीं तो रंग-मिस्त्री ने दोनों बेटियों के हाथ में दस-दस का एक-एक नोट थमा दिया और दोनों पति-पत्नी सियालदह लौट आए।
''आजाद परिंदे की तरह दिन-भर सड़क पर गश्त लगाने की दोनों की आदत... और हॉस्टल की नियमों वाली सख्त जिंदगी! उस पर वार्डेन की मार-पीट, डाँट-फटकार और चौबीस घंटों की झिकझिक-झिकझिक। दोनों बच्चियों को घर बुरी तरह पुकारता और उस पर हाथों में बीस रुपए की पूँजी का भोला विश्वास। एक शाम दोनों हिम्मत कर हॉस्टल से भाग खड़ी हुईं। जैसे-तैसे वे स्टेशन तक पहुँचीं, पर स्टेशन पर भीड़-भाड़ और ट्रेनों की कतार देख रोने लगीं।
''बच्चियों को रोते देख किसी ने उन्हें थाने तक पहुँचा दिया। थाने वालों ने बच्चियों से पूछताछ की। उन्हें सिनी आशा की हॉट लाइन की जानकारी थी। पिछले बीस वर्षों में सिनी आशा ने अच्छा-खासा नेटवर्क तैयार कर लिया था। ओ.सी. ने नंबर घुमाया-1098 और झुनिया और मंगला के बारे में जानकारी दी। सिनी आशा वालों ने लड़कियों को थाने में ही रुकवाकर रखा और अपनी एक महिला स्टाफ को भेज दिया उन्हें लाने के लिए। महिला कार्यकर्ता दोनों लड़कियों को लेकर ट्रेन में बैठी। जैसे ही ट्रेन छूटी दोनों लड़कियाँ भयभीत हो गला फाड़ने लगीं - 'हम इन मैडम को नहीं जानते, पता नहीं ये हमें कहाँ ले जाएँगी। ये हमें बदमाशों को बेच देंगी।' ट्रेन यात्रियों ने भी अपना 'यात्री-धर्म' निभाते हुए 'बच्चा-चोर', 'बच्चा-चोर' का हल्ला मचाया और देखते-देखते महिला की जूते-चप्पलों और घूँसों से ठुकाई होने लगी। उत्तेजित और विचार-शून्य भीड़ से महिला ने हाथ जोड़कर विनती की, 'मुझे थाने ले चलिए। सच्चाई का पता चल जाएगा।'
'''थाने-वाने में कुछ नहीं होता, वहाँ तो कुर्सी पर चोर-डकैतों की माँएँ बैठी हैं। जो होना है यहीं हो जाए, फेंक दो साली को चलती ट्रेन से।'
''पर उसी भीड़ में एक-दो का विवेक भी उनके साथ था। उन्हें लगा, महिला निर्दोष है। उन्होंने किसी प्रकार बीच-बचाव करते हुए महिला को थाने तक जिंदा रखा।
''घटना का बखान करते-करते तृप्ति दी फिर अपने मूल एजेंडे पर आ गईं और मुझसे कहने लगीं - 'श्यामली, तुम इन सब बच्चों की केस हिस्ट्री लिखो। कुछ की तो लगभग तैयार है, बस तुम्हें उन्हें फिर से टाइप करवाकर फाइल करनी है। पर कुछेक की केस हिस्ट्री आधी परती है। तुम्हें उनकी फाइल पूरी करनी है। पर इन बच्चों में सबसे टेढ़ी लकीर है पिंकी। बाप रे! साल-भर हो गया उसे यहाँ आए, पर उसकी फाइल अभी तक आगे नहीं बढ़ी। अरे, पलक झपकने जितना आसान नहीं है उसकी फाइल तैयार करना।'
'''पिंकी? पिंकी कौन? वही घुँघरूवाली?'
''तृप्ति दी हँस पड़ीं। आँखों में मद झलका, 'हाँ, हाँ शेई, घुँघरूवाली (हाँ, हाँ, वही घुँघरूवाली)।'
''ध्यान आया, जब पहली बार पिंकी के दीदार हुए तो उसके पाँवों में घुँघरू बँधे हुए थे। नृत्य और संगीत जैसे उसकी रगों में था। दिन में एक बार वह नृत्य अवश्य करती थी और तब पूरा सिनी आशा उसकी रुनझुन की मादक-मादक झंकार से गूँज उठता था। यहाँ के फुटपाथी बच्चों के बीच किसी दूसरे सौरमंडल की नक्षत्र-सी अलग से झिलमिलाती थी वह। हरेक हृदय में यौवन और सौंदर्य के स्वप्न जगाती वह जिधर से भी गुजरती, दिलचस्प आँखें उठ जाती थीं उसकी ओर।
''वह मूक-मौन, पर चेहरा बोलता हुआ।
''थोड़ी देर बाद ही किसी भारी-भरकम बोरी की तरह लुढ़कते-ठुमकते तृप्ति दी फिर मेरे पास आईं और गुलाबी रंग की एक फ्लैट फाइल पकड़ाते हुए मुझसे बोलीं, 'लो पढ़ लो इसे, पिंकी के बारे में हम लोगों ने जो कुछ भी जाना है, वाया दिस फाइल।'
''वे फिर फुसफुसाईं - 'यह लड़की अपने कूल-किनारे छूने तक नहीं देती, बहुत सावधानी से बात करना इससे। भई, सभी अपने हगे-मूते पर मिट्टी डालते हैं, पिंकी भी क्या करे। इसकी माँ सोनागाछी में रहती है। अरे, माँ क्या माँ के नाम पर कलंक है। खुद रंडी बनी और पिंकी को भी उसी नरक में घसीटा। पिंकी की फाइल में स्पष्ट लिखा है कि 11 वर्ष से 14 वर्ष की उम्र तक उसके साथ कई बार बलात्कार हुआ और वह भी उसकी माँ के ग्राहकों द्वारा ही। सबसे पहले वह 'ऑल बंगाल चिल्ड्रेन वेलफेयर होम' में थी। वहाँ पर उसकी किसी सहेली को पिंकी की माँ के बारे में पता चल गया था। एक दिन उसने पिंकी से पूछ डाला, 'तोर माँ की वेश्या छीलो?' (तुम्हारी माँ क्या वेश्या थी?)। बस, पिंकी के चोले को फाड़कर एक नई पिंकी निकली और गुस्से में उस लड़की का सिर दीवाल से भिड़ा दिया। इस घटना के बाद उसकी फाइल में लिख दिया गया - मेंटल केस, और उसी आधार पर उसे अंताराग्राम मेंटल हॉस्पिटल में भेज दिया गया। वहाँ उसे विक्षिप्तों और मंदबुद्धियों के साथ रखा जाता। पर पिंकी मानसिक रोगी तो थी नहीं। फिर भी कुछ दिनों तक खामोशी ओढ़े रखी उसने, पर जब स्थिति नाकाबिले बर्दाश्त हो गई तो उसने चेक करने आए डॉक्टर से कहा, 'मुझे नहीं रहना इन पागलों के बीच। दिन-भर ये लोग लड़ती-झगड़ती हैं और मेरे बिस्तर-कपड़ों पर थूक देती हैं...।'
''एक-ए क शिफ्ट में दर्जनों विक्षिप्तों को निपटानेवाले डॉक्टर की सारी संवेदनाएँ सूख चुकी थीं। उसके सिर्फ दो ही काम थे, हर महीने वेतन का चेक उठाना और पागलों को नियंत्रित रखना... इस कारण जब-जब पिंकी कहती, वह उसे डपट देता, 'बेशी कोथा कोरले चेने बेंदे दिवो।' (अधिक बक-झक किया तो चेन से बाँध दूँगा।) एक बार गुस्से में आकर पिंकी ने डॉक्टर का हाथ काट लिया। उस दिन उसे दिन-भर कुत्ते की तरह चेन से बाँधकर रखा गया।
''फिर किसी चमत्कार की तरह जाने किस बुद्धिमान और सहृदय साईकियास्ट्रिस्ट की मेहरबानी से उसे हमारे यहाँ भेज दिया गया।
''मैं अवाक्। यह जानकारी की नई परत थी और अभी जाने कितनी परतें और खुलने वाली थीं। एकाएक मैंने पूछा, 'आपने क्या कभी उसमें कोई पागलपन का लक्षण देखा?'
''अपने दाएँ हाथ के पंजे निकाल-निकालकर तृप्ति दी ने कहा, 'अरे नहीं, वह तो खुद मानसिक रोगियों को ठीक कर दे। उसका नृत्य, उसका सेवा-भाव, उसका व्यवहार देख सभी निहाल हैं यहाँ। बस जरा-सी प्रॉब्लम चाइल्ड है... विशेषकर यदि कोई उसके अतीत को छूना भी चाहे तो काटने दौड़ती है। माँ का तो नाम तक सुनना नहीं चाहती... इसीलिए उसकी फाइल अभी तक अधूरी पड़ी है। इस संस्था का नियम है, जितने बच्चे उतनी फाइलें।' वे फिर मेरी ओर आशा-भरी निगाहों से देखने लगीं, 'तूमि पारबी तो' (तुम कर सकोगी तो)।
''मैंने आत्मविश्वास से सिर हिलाया, 'अरे, इतने उग्रवादियों का, नक्सलवादियों का, साधुओं का, तवायफों का, इंटरव्यू लिया तो यह किस खेत की मूली?'
''वे आश्वस्त हुईं, 'खूब भालो' (बहुत अच्छा)। और ग्रहों की अँगूठी वाली अपनी उँगलियों से मेरे गाल को हलके से थपथपाया।
''उस दिन अपने विलक्षण रूप में थी पिंकी।
''समय और सृष्टि के बाहर खड़ी प्रेम-पुजारिन मीरा की तरह नाच रही थी वह। सिनी आशा में वार्षिकोत्सव की तैयारियाँ चल रही थीं। मैं भी फाइलों को परे खिसकाकर नृत्य देखने पहुँच गई।
''ऐसा स्वाभिमानी सौंदर्य! ओस-बूँद की तरह शीतल और अग्नि की तरह दहकती हुई। लगा, जैसे कोणार्क के सूर्य-मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण कोई रूपसी जमीन पर उतर आई है। उसके प्रभामंडल से चौंधियाए पास ही हैप्पी होम और सिक विंग के कई बच्चे बुखार में भी आकर खड़े हो गए। मस्त मोरनी की तरह अपने मन के मधुबन में नाच-नाचकर पूरे वातावरण को मीरामय बनाने के बाद जब वह थककर बैठ गई तो जाने किस ईर्ष्यालु लड़की ने गुस्ताखी से पूछ डाला, 'बिना नृत्य स्कूल में दाखिला लिए इतना भव्य नृत्य तो तुमने अपनी माँ से सीखा होगा...' बस, देखते ही देखते उल्लास, सौंदर्य और उमंग की वह देवी जंगली बिल्ली बन चीं-चीं करने लगी। स्वेद-कण से चमकता उसका चेहरा गोबर के अधजले उपले की तरह बदरंग हो गया। उसकी गुलाबी आँखों से चिनगारियाँ फूटने लगीं। वह अपनी सहेली पर टूट पड़ी और उसका बायाँ हाथ इतनी जोर से मरोड़ा कि यदि पास में ही बैठी गिटारवादिका ने उसे नहीं छुड़ा लिया होता तो हड्डी ही टूट जाती उसकी।
''इस घटना के बाद पिंकी फिर सिकुड़ती गई। खामोशी उसके भीतर फैल गई। आहिस्ता-आहिस्ता।
''उसे फिर मानसिक अस्पताल में भेजने की बात होने लगी।
''तृप्ति दी के घोड़ा-छाप लंबोतरे चेहरे पर विषाद की हलकी परत फैल गई। उन्होंने फिर मुझे आगाह किया, 'अभी तक आपने पिंकी की फाइल पर काम करना शुरू नहीं किया... यह तो है हाल पिंकी का... कभी भी उसे मेंटल हॉस्पिटल में भेजा जा सकता है। नहीं, यदि दूसरे बच्चों को उससे खतरा हो तो उसे कैसे रखा जा सकता है?'
''कुछ दिनों बाद ही दुर्गापूजा आ गई। कोलकाता का सबसे बड़ा जातीय त्यौहार। पूरे चार दिनों तक दुल्हन की तरह सजा-धजा कोलकाता और रोशनी की झालरों से झिलमिल-झिलमिल करते यहाँ के पंडाल। कोई पंडाल ताजमहल की अनुकृति तो कहीं दिल्ली का संसद भवन तो कहीं हाईकोर्ट तो कहीं जयपुर का हवामहल। पूजा की वह धूम कि जिसने पूजा नहीं देखी वह अजन्मा। कोलकाता ही नहीं, आसपास के गाँवों-कस्बों से भी लोग बहते हुए चले आते यहाँ, जिंदगी का स्वाद लूटने के लिए।
''हमारी सिनी आशा के भी अधिकांश बच्चे घर चले गए थे, अपने परिवार के साथ पूजा मनाने। घने पेड़ों के झुरमुटों के बीच इक्के-दुक्के ठूँठ की तरह गिने-चुने वे ही बच्चे रह गए थे जो या तो बेहद बीमार थे या जिन्होंने दुनिया में अपने लिए बहुत ही कम जगह घेरी थी। ऐसे बे-ठौर-ठिकानों वाले बच्चों को सँभालना बहुत जानलेवा होता था, क्योंकि सावन की घटाओं की तरह हर पल इनके भीतर अपने उजड़े घर की धुँधली यादें उमड़ती-घुमड़ती रहतीं। ये छुट्टियाँ उन्हें खुशनसीबों से अलग कर लहर दर लहर इनकी उदासी बढ़ाती जातीं। सिनी आशा के बरामदे में खड़े ये बच्चे पथरीली आँखों से अपने हमउम्र बच्चों को अपने माँ-बाप और भाई-बहनों के साथ जश्न मनाते देखते और लहूलुहान होते रहते थे। हम चाहकर भी उन दिनों उनके चेहरों पर हँसी नहीं उगा पाते थे।
''जिंदगी के जाने कितने रहस्यों को अपने भीतर समेटे पिंकी भी अपनी वीरान आँखें और गमगीन चेहरा लिए बरामदे में खड़ी थी।
''मैंने पीछे से उसके कंधों पर हाथ रखा। वह चिहुँकी।
'''ओह, आंटी!'
'''चलो, पूजा दिखा लाती हूँ।'
'''पूजा?' क्षण-भर के लिए उसकी आँखें चमकीं, पर अगले ही क्षण उनमें सयानापन भर आया।
'''नहीं आंटी, आज मैं खाली नहीं हूँ...।' उसने किसी बेहद व्यस्त गृहस्थिन के अंदाज में कहा।
'''तुम्हें क्या काम है?'
''उसने उँगली 'सिक विंग' की ओर उठाई, जहाँ कोई नया परिंदा जगह घेर रहा था। भोला। सिनी आशा के फील्ड वर्कर उसे सियालदह स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर पाँच से उठा लाए थे। उसके घुटने फूले हुए थे। वह दर्द के मारे ऐंठ रहा था। वह पत्ताखोर (नशेबाज) था। उसके पिता वैन चलाते थे। सियालदाह स्टेशन के पास ही पुल के नीचे उसकी खोलाबाड़ी थी, जहाँ उसकी माँ पाँच-पाँच रुपयों में पत्ताखोरों को नशे के सेवन के लिए खोलाबाड़ी किराए पर देती थी। भोला पत्ताखोर को पन्नी, ब्लेड, मोमबत्ती, दियासलाई पकड़ाते-पकड़ाते स्वयं कब नशे की टान मारने लगा, उसे भी पता नहीं चला। देखते-देखते यह लत बन गई। पत्ता (नशे की एक डोज) नहीं मिलता तो वह नशे की तलब मिटाने के लिए डेनड्राइट का सॉल्युशन ही खाने लगा।
'''ओ माँ, माँगो,' भोला दर्द से ऐंठ रहा था। पिंकी उसे प्यार से डाँट पिला रही थी, 'और टान पत्ता, कर टपोरीगिरी।' (और कर नशा और कर टपोरीगिरी)।
''पिंकी ने हाथ के सहारे से उसे उठाया और उसे पेन-किलर दी और फिर उसे सुलाते हुए डाँट पिलाई, 'चोक मूँदे सुए थाक।' (आँख बंद कर पड़ा रह।)
'''तो तुम कब चलोगी?'
'''जब तक इसका दर्द कम नहीं हो जाता।'
''चीं-चीं कर दरवाजा बंद हुआ और मैं झल्लाती हुई बाहर।
''तीसरे दिन भोला को आराम मिल गया था और पेन-किलर के प्रभाव से वह जमकर सो रहा था। उसके सिरहाने बैठी थी पिंकी - उदास और अवसन्न। आँखों से टपकते टप-टप आँसू, जैसे महाकाल के कपोल पर लुढ़कती कुछ बूँदें।
''मुझे देखते ही वह फफक पड़ी - 'आप मुझे पूजा दिखाने के लिए ले चलने वाली थीं न। मुझे पूजा नहीं देखनी। मुझे अपनी ठाकुर माँ से मिलना है। वे बहुत बूढ़ी हैं। मुझसे मिलने नहीं आ सकतीं। आप मुझे मेरी ठाकुर माँ के पास ले चलिए... मुझे मिलना है उनसे। उन्हें देखे चौदह महीने हो गए। जाने किस हाल में होंगी वे!'
''पिंकी के दिल में अपनी ठाकुर माँ की यादों का इकतारा बज रहा था। पर मैं उसे कैसे समझाती कि तृप्ति दी ने मुझे पिंकी को ठाकुर माँ के पास भी ले जाने को मना किया है। उसकी ठाकुर माँ के घर के पास ही उसकी माँ का भी घर है। उसकी माँ को भनक पड़ते ही वह पिंकी को लेने वहाँ आ सकती थी। तृप्ति दी की चेतावनी मेरे कानों में गूँज रही थी - 'आप नहीं जानतीं उसकी माँ को, किसी भी प्रकार बहला-फुसलाकर वह वापस पिंकी को उसी गंदगी में धकेल सकती है। आप नहीं जानतीं उसकी माँ को। यदि सप्ताह-भर भी पिंकी रह जाए अपनी माँ के साथ, तो उसी की भाषा बोलने लगेगी। यहाँ आई थी पिंकी तो बड़ी गंदी जुबान और आदतें थीं उसकी। बिना... सड़ी और मादर के बात ही नहीं करती थी। और कमीज तो इतने खुले गले की पहनती थी कि आधा माल बाहर से ही दिखे। हमने उसे सरस्वती वंदना सिखाई। उसे अच्छे भावों के नृत्य सिखाए।'
''पिंकी लगातार झँझोड़ रही थी मुझे, 'आंटी मुझे ले चलिए अपनी ठाकुर माँ के यहाँ।' एकाएक मुझे एक उपाय सूझा। मैंने सोचा कि कुछ ऐसा किया जाए कि पिंकी भी खुश हो जाए और मुझे भी इस खूबसूरत शाम की कुछ मलाई हाथ लगे।
''मैंने पिंकी से कहा, 'पिंकी, नहीं मामा थेके काना मामा भालो (बिना मामा से काना मामा अच्छा)। मैं ऐसा करती हूँ कि टैक्सी में तुम्हारी ठाकुर माँ को ही लेकर यहाँ आ जाती हूँ, क्योंकि मुझे तुम्हें वहाँ ले जाने की इजाजत नहीं है। तुमसे मिलवाकर मैं तुम्हारी ठाकुर माँ को वापस वहाँ छोड़ आऊँगी। पर इसके बदले तुम्हें भी मेरा एक काम करना होगा।'
'''हाँ, हाँ, क्यों नहीं? बोलिए, मुझे क्या करना होगा?'
''मैंने कहा, 'पिंकी, मैं जो कुछ भी तुमसे पूछूँ, तुम्हें उसका जवाब देना होगा... देखो, मुझे तुम्हारी फाइल तैयार करनी है। तुम्हारी पूरी केस हिस्ट्री... ई... '
''मैं बात पूरी कर भी नहीं पाई थी कि उसकी आवाज अकस्मात रामपुरी चाकू की तरह धारदार हो गई, 'क्या फाइल?' और देखते-देखते लोकगीत-सी लुभावनी पिंकी शोक-गीत में बदल गई।
''मैंने हिम्मत कर कहा, 'तुम्हारी भलाई के लिए ही तो तैयार की जा रही है यह फाइल।'
''वह धम्म से बैठ गई, जैसे कोई बुलंद इमारत ढह गई हो। जाहिर था, जिंदगी से लड़ते-लड़ते वह जैसे थक गई थी।
''उसे ढहते देख मेरी हिम्मत इंच-भर और बढ़ी। मैंने फिर उसे कुरेदा, 'देखो, माँ के प्रति तुम्हारी नफरत तो समझ में आती है, पर इन फाइलों ने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा?'
''मेरी बात सुन रेत पर पड़ी सोन मछली-सी वह तड़पी। सुरमा-सजी उसकी आँखें मिचमिचाईं। एक दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए उसने कहा, 'अब कैसे समझाऊँ आपको कि जितना मेरा नुकसान मेरी माँ ने किया उससे ज्यादा फाइलों के इन खुले जबड़ों ने किया है। निगल ली हैं इन्होंने मेरी सारी खुशियाँ। इज्जत की डाल पर झूलते आप लोग क्या कभी सोच भी सकते हैं यह सत्य कि 11 से 14 वर्ष तक मेरा कई बार बलात्कार हुआ जब तक इन फाइलों में दर्ज रहेगा, समझ लीजिए, यह मेरे माथे पर दर्ज रहेगा। जो मेरे साथ हुआ उसके लिए मैं दोषी नहीं, यह सोच मैं अपने अतीत को भूल जिंदगी में रुचि लेने लगी थी। एक लड़के से प्रेम भी करने लगी थी। वह सचमुच मेरी जिंदगी का उजाला था। उसे देख मैंने पहली बार महसूसा कि आदमी जीना तभी सीखता है जब किसी से प्यार करता है। वह भी मुझे बेइंतहा चाहने लगा था। मैंने उसे बताया कि मेरी माँ सोनागाछी में रहती अवश्य है, पर वह बुरा काम नहीं करती... वह आसपास के घरों में खाना पकाती है। मेरी ठाकुर माँ (दादी) बहुत बूढ़ी हैं, इस कारण माँ ने मुझे सिनी आशा में रख रखा है। वह मुझे प्यार भी करता रहा, पर भीतर ही भीतर मेरे बारे में खोज-खबर भी करता रहा। एक दिन मेरी अनुपस्थिति में उसने ऑफिस के क्लर्क को घूस-वूस देकर पटा लिया और मेरी फाइल पढ़ डाली। उसके बाद से उसने मुझसे मिलना छोड़ दिया। कई दिन की छटपटाहट के बाद एक बार मैं उसके घर पहुँची तो उसने मुझे बाहर से ही चलता किया। मैंने जब इस बेरुखी का कारण पूछा तो उसने मुझे ऐसी नजर से देखा जैसे मैं कितनी गंदी और घिनौनी जानवर हूँ। उसका शब्द-शब्द मेरी आत्मा को दाग गया। उसने मुझसे कहा, 'मैंने तुम पर कितना विश्वास किया... पर तुम... रंडी की बेटी रंडी ही निकली।' उसके बाद वह मुझे फिर कभी नहीं मिला। मेरे जीवन में काली रात का अँधेरा भर वह सदा के लिए चला गया।'
''भीगे कबूतर की तरह मैं बैठी रही। मूक-मौन। कनखियों से देखा मैंने, बूँद-बूँद उदासी पिंकी के चेहरे से टपकते हुए अनंत में डूबती जा रही थी। लगा, जैसे यह पिंकी नहीं, कोई आदिम शकुंतला थी। फर्क बस इतना ही कि वह अपनी अँगूठी और यह अपनी फाइल वापस माँग रही थी मुझसे।
''पिंकी से बिना कुछ कहे मैं वहाँ से खिसक गई। धीरे-धीरे और बेआवाज पतझड़ के सूखे पत्ते की तरह।
''पूजा की छुट्टियाँ अभी चल ही रही थीं।
''दूसरे दिन मैं फिर पिंकी के पास। पर आज मुझे देख उसमें कुछ भी नहीं जागा। उसके भीतर की बुलबुल मर गई थी। वह वैसे ही बैठी रही। खामोश, अडोल। मैंने फिर उसके कंधे पर हाथ रखा और उसे उत्तेजित करने को कहा, 'मैंने तो तुम्हें होशियार समझा था, पर तुम तो मूर्ख निकलीं। महामूर्ख।'
''वह सचमुच भड़क उठी, जैसे वामपंथी कांग्रेस की आर्थिक नीतियों से भड़क उठते हैं।
'''क्या... क्या मतलब?'
'''यह देखो तुम्हारी फाइल... बताओ, कहाँ लिखा है इसमें तुम्हारे या तुम्हारी माँ के बारे में?'
''क्षण-भर के लिए पिंकी सोच में पड़ गई... पर दूसरे ही पल उसने फिर पलटवार किया, 'यदि इसमें नहीं लिखा होता तो समीर, हाँ, वही लड़का, को मेरी माँ के नाम, मेरे पाड़े (मुहल्ले) के नाम का पता कैसे चलता? उसे यह भी पता कैसे चलता कि 11 वर्ष से 14 वर्ष के बीच... '
'''बताओ, कहाँ लिखा है?' मैंने फिर उसे कुरेदा।
''पिंकी ने फाइल उलटाई और एक जगह उँगली दिखाई, बैक ग्राउंड हिस्ट्री... 'देखिए आंटी, यहीं कहीं लिखा होगा... उतनी अंग्रेजी मुझे नहीं आती।'
'''कहाँ...' और देखते-देखते मेरे फाउंटेन पेन की स्याही ने उसकी पूरी बैक ग्राउंड हिस्ट्री को काली स्याही में बदल दिया।
''पिंकी भौचक्की! 'यह क्या किया आंटी?'
'' 'कुछ नहीं। जिंदगी की जंग ऐसे भी लड़ी जाती है। यह भी एक दुर्घटना थी। ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे साथ हुई थी। अब तुम्हीं बताओ... दुर्घटनाओं के लिए कोई भी दोषी हो सकता है क्या?'
'''पर तृप्ति दी को आप क्या जवाब देंगी?' पिंकी मेरी चिंता में फूँ-फा करने लगी थी।
''मन ही मन मैं अपनी पीठ थपथपा रही थी। भले ही तृप्ति दी के समक्ष मैं लाजवाब हो जाऊँ... पर इतिहास ने मेरे सिरहाने खड़े होकर कभी यदि पूछा कि तुमने क्या किया? तो मैं उसे कुछ जवाब दे पाऊँगी। पर प्रत्यक्षतः यही कहा, 'जवाब क्या देना है, फाइलों का यह देश, यहाँ फाइलें सिर्फ तैयार की जाती हैं, पढ़ी कहाँ जाती हैं। पहले भी तीन बच्चों की फाइल निपटा चुकी हूँ, उन्होंने पलटकर भी नहीं देखा। मैंने कह दिया... पूरी हो गई और फाइल को रैक में लगा दिया... तुम्हारे साथ भी वैसा ही होगा।'''
बतलाते-बतलाते श्यामली दी का चेहरा भोर की किरणों-सा जगमगा उठा था... भाव-विभोर हो वे बोलीं, ''...वह एक अतींद्रिय अनुभव था। लगा, जैसे मैंने धरती के एक घिनौने धब्बे को साफ कर दिया है। और पिंकी... वह तो जैसे सेमल के फूल की तरह हलकी हो आसमान में उड़ रही थी।''
हम सब उठ गए थे, पर श्यामली दी के मन का पर्दा अब भी उन्हीं चित्रों से भरा हुआ था।