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शतरंज की बिसात पर
गोटियों की मानिंद बिछी हुई जनता
आखिर क्यों हँसती है किसी मसखरे की बात पर
धर्म और जात पर
बुनियादी सवालात पर
बँटी हुई जनता
आखिर क्यों हँसती है
बिगड़े हुए हालात पर
जब नाजुक जज्बात से खेलता है
खेल कोई
तजुर्बों में पकी हुई जनता
आखिर क्यों हँसती है
जहरबुझी बात पर
भूख और प्यास से कुलबुलाती आँत पर
रेंगती हुई जनता
आखिर क्यों हँसती है
किसी मसखरे की बात पर
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