(गुरु शिष्य परंपरा में नवीनता)
कथक पर बात करते समय सबसे पहले हमारे मन में बिरजू महाराज की छवि आती है। उन्हें कथक के ईश्वर के रूप में पूजा जाता है। काल्का बिंदादीन, अच्छन महाराज की परंपरा वाले लखनऊ घराने को उन्होंने आकाश की ऊँचाई दी। आज उस परंपरा की बागडोर उनके साथ उनके पुत्र जयकिशन महाराज और दीपक महाराज सँभाल रहे हैं। वे दोनों भी गुरु के रूप में अपनी मजबूत पहचान बना चुके हैं। यह अलग बात है कि उनकी योग्य पुत्री ममता महाराज को जो स्थान वास्तव में मिलना चाहिए था, वो नहीं मिल पाया। कारण रहा, इन परिवारों में अपने परिवार की महिलाओं के नृत्य के प्रोत्साहन का अभाव। लेकिन धुन की पक्की ममता महाराज ने स्वयं को स्थापित करने में पूरी ताकत झोंक दी और स्वयं को गुमनामी के अँधेरों से कुछ हद तक बचा के रखा। घरानेदार गुरुओं के अतिरिक्त ऐसे बहुत सारे कलाकार हैं जो गैर घरानेदार परिवारों से नृत्य की दुनिया में आए। वे अपने परिवारों के पहले ऐसे व्यक्ति थे कथक की दुनिया में आए। इनमें पुरुषों के साथ साथ बड़ी संख्या में महिलाएँ भी थीं। मैडम मेनका, माया राव, कुमुदिनी लाखिया, सितारा देवी, उमा शर्मा, शोवना नारायण, कुमकुम धर, प्रेरणा श्रीमाली, रानी खानम, अदिति मंगलदास, जैसे ही कितने महत्वपूर्ण नाम हैं, जिन्होंने देश ही नहीं विदेशों में भी इस भारतीय कला का लोहा मनवाया। ये नृत्यांगनाएँ नृत्य के क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध रहीं, पर गुरु के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करने में इन्हें घरानेदार गुरुओं की तुलना में ज्यादा समय लगा, जबकि प्रतिभा में ये कहीं भी उनसे कम नहीं थीं।
शास्त्रीय नृत्य एक ऐसा क्षेत्र रहा है जिसमें प्रस्तुतकर्ता के रूप में भागीदारी सर्वाधिक महिलाओं की ही रही है पर संरक्षकों और गुरुओं के माध्यम से नियंत्रण सदैव पुरुषों का ही बना रहा। जब तक नृत्य कला तवायफों के पास थी, तब तक उनका अपना अधिकार नृत्य कला को लेकर काफी मजबूत था। उनकी अपनी एक सत्ता भी थी, लेकिन आजादी के बाद शास्त्रीय नृत्य को सुरक्षित और विकसित करने के लिए बने सरकारी संस्थानों में प्रमुखता और सत्ता गुरु के रूप में पुरुषों की ही रही। जब गैर व्यावसायिक श्रेणी की उच्च जातीय, मध्यवर्गीय या उच्च मध्यवर्गीय महिलाएँ अपनी कला प्रेम को जीवन देने इन संस्थानों में मिलने वाली छात्रवृत्ति की सहायता से इस नृत्य को सीखने के लिए इन केंद्रों में आईं, तो उनकी स्थिति द्वितीयक ही रही। बहुत लंबा समय इन महिलाओं को गुरु की पदवी प्राप्त करने में लगा और जब ये पद उन्होंने प्राप्त किया तो उन्होंने गुरुशिष्य परंपरा के तमाम अतार्किक, गैर बराबरी को बढ़ाने वाले, शिष्य की समझ को ना स्वीकारने वाले तमाम स्वरूप को बदल दिया। इसे उन महिलाओं की प्रतिरोधी चेतनाके रूप में देखना चाहिए।
इस आलेख में मैंने इन नृत्यांगनाओं के एक शिष्य और गुरु दोनों के रूप में अनुभवों को समेटने का प्रयास किया है। शिष्य के रूप में उनके अपने गुरुओं के साथ क्या अनुभव रहे हैं? गुरु से बहुत सम्मान के साथ ज्ञान हासिल करने के साथ साथ किस तरह के सत्ता संबंधों को वे स्वयं और गुरुजी के बीच महसूस करती थीं? क्या बातें उन्हें अपनी कला साधना में बाधक प्रतीत होती थीं। इन बाधाओं से उन्होंने कैसे तालमेल बैठाया। गुरु बनने के उनके अपने अनुभव क्या रहे? अपने शिष्य के साथ उनके संबंध किस प्रकार के रहे और अपने पुराने अनुभवों से कैसे उन्होंने अपने शिष्यों को विभिन्न प्रकार की बाधाओं से मुक्त करने का प्रयास किया। गुरु शिष्य के बीच एक ज्यादा समतामूलक संबंध बनाने की ओर कदम बढ़ाया? आदि बातों के बारे में हम कथक नृत्यांगनाओं द्वारा दिए गए साक्षात्कारों के आधार पर चर्चा करेंगे।
पारंपरिक गुरु-शिष्य परंपरा में शिष्य का पूर्ण समर्पण ही उसे ज्ञान दिला सकता था। नए समय में भी इस परंपरा में शिष्य की गुरु पर पूरी निर्भरता बनी ही रही। गुरु-शिष्य परंपरा के भीतर सीखने का नियम कठिन होता है। खासतौर पर शास्त्रीय परंपराओं में तो कला की शुद्धता पर जो आग्रह गुरुओं का होता है, उसमें किसी शिष्य या शिष्या के अपने अनुभवों या अन्य किसी तरह की रचनात्मकता को कला में स्थान देने की संभावना नगण्य होती है। इसी बात पर मदाक्रांता बोस ने अपने आलेख 'द ऑनरशिप ऑफ क्लासिकल डांसिंग एंड इट्स परफॉर्मेंस ऑन द ग्लोबल स्टेज' में शास्त्रीय नृत्य पर यह प्रश्न जोर-शोर से उठाया है कि जहाँ व्यक्ति की अपनी सोच या विचार, परंपरा के नाम पर चल रही संहिताओं (असमान सत्ता-संबंध खासतौर पर जेंडर के परिप्रेक्ष्य में) से सीमित और उसके बंधन में जकड़ी हो तो क्या वास्तव में कलाकार का उस कला पर कोई अधिकार होगा या वह सिर्फ एक मशीन मात्र होगा जो सिर्फ जैसा सीखेगा वैसा ही उसे प्रस्तुत कर देगा। यह प्रश्न इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि नृत्य के क्षेत्र में जो महिलाएँ नृत्य सीखने आती हैं, वे अपने घर से एक संघर्ष करके आती हैं। कथक में यह संघर्ष और ज्यादा बढ़ जाता है क्योंकि अभी भी इस पर तवायफों का नाच होने का धब्बा पूरी तरह से मिटा नहीं है, जबकि दक्षिण भारतीय नृत्यों जैसे ओडिसी, भरतनाट्यम आदि को देवदासियों या कहें कि सीधे तौर पर मंदिर का नृत्य होने के कारण एक सम्मान मिल जाता है। कथक नृत्य का संबंध मंदिर से था या नहीं इस पर काफी मतभेद मिलते हैं।
कथक सीखने आई कलाकार अपने घर से संघर्ष करके कथक सीखने निकल रही हैं और उसे व्यवसाय बनाने के लिए दूसरा संघर्ष भी करती हैं। आज भी स्त्री को एक व्यावसायिक नर्तकी के रूप में अच्छे नजरिये से नहीं देखा जाता। ऐसे में वे अपने घर के पितृसत्तामक दायरे से निकलकर पुनः एक रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक दायरे में पहुँच जाती है। तो वहाँ उनके संघर्ष करने की क्या स्थिति रहती है? क्या शास्त्रीय कलाएँ उन्हें कोई स्पेस उपलब्ध कराती हैं या नहीं? सार्वजनिक जीवन और खासकर कला के क्षेत्र में वे स्थापित पितृसत्ता के विभिन्न रूपों के साथ किस तरह का संघर्ष करती हैं? इसके लिए वे क्या तकनीक अपनाती हैं? इन सवालों के जवाबों की पड़ताल स्त्री की प्रतिरोधी आवाज को जानने-समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
कथक सीखने आई शुरुआती लड़कियों में माया राव, कुमुदिनी लाखिया, स्व. रेवा विद्यार्थी जैसे कलाकार थे। ये तीनों ही नृत्य के क्षेत्र में महारती रहे हैं, पर वास्तव में उन्हें वह पहचान और सम्मान लंबे समय तक नहीं मिल पाया जिसकी वे हकदार थीं। वे हाशिये पर रहीं। अपने संघर्ष को एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष मानकर उन्होंने अपने प्रयासों से कथक के क्षेत्र में एक नई पहचान बनाई। माया राव ने गुरु द्वारा बिना किसी व्यवस्थित क्रम से नृत्य सिखाने की परंपरा के स्थान पर कथक को एक क्रमबद्धता दी। उसमें वंदना जैसे तत्व शामिल किए। मंद से तीव्र की ओर जो आज हम कथक का क्रम देखते हैं, जिसमें वंदना, आमद, थाट, तोड़े, टुकड़े परन, गत निकास, पैरों का काम आदि एक के बाद एक हैं, वह क्रम माया राव की ही देन है ।
कुमुदिनी कथक में मिथकीय चरित्रों की भरमार से परेशान थीं। माया के साथ-साथ कुमुदिनी ने भी पौराणिक कथाओं से हटकर सामाजिक मुद्दों और अमूर्त संरचनाओं को अपने नृत्य में शामिल किया और अपनी एक अलग पहचान बनाई। माया राव का मानना था कि कला जीवन का आईना होनी चाहिए और मनुष्य के जीवन के अनुभव उसकी कला में आने चाहिए। माया 1967 की एक घटना का जिक्र करते हुए बताती हैं कि भारतीय नाट्य संघ ने विज्ञान भवन में एक गोष्ठी का आयोजन कराया। उस समय छात्र आंदोलन चल रहा था, किसी विद्यार्थी ने स्वयं को जला लिया था, इस पर आक्रोश और भड़क गया। बाहर बसें जलाई जा रहीं थीं, लोग मर रहे थे। उस समय हमारी एक प्रतिनिधि इस बात पर काफी नाराज हुई कि बाहर हालात इतने खराब चल रहे हैं और हम यहाँ वातानुकूलित कक्ष में बैठकर गीत गोविंद, कुडीयट्टम, स्वप्नवासवदत्ता आदि देख रहे हैं। उसका कहना था कि आखिर कला क्या है? क्या उसमें हमारे जीवन का प्रतिबिंब नहीं होना चाहिए? इस बात से माया राव पूरी तरह सहमत थीं। वे हैवलॉक एलेस का उदाहरण देती हुई कहती हैं कि नृत्य जीवन है। इसी विचार के आधार पर उन्होंने अनेकों रचनाएँ कीं। उनकी रचनाओं में अकाल के खिलाफ संघर्ष के साथ-साथ दहेज प्रथा, बहुओं को जलाना, पर आधारित कन्यादान बनाया, जो महिलाओं के ऊपर शोषण व असमानता पर आधारित है। अन्य मुद्दों में आतंकवाद, बाबरी मस्जिद विध्वंस और उनके विद्यार्थियों द्वारा ही बनाई गई खाड़ी के देशों पर आधारित नृत्य नाटिका प्रमुख है। वहीं कुमुदिनी ने और गंभीरता से अपने कदम नृत्य निर्देशन की तरफ आगे बढ़ाए। उनकी कुछ प्रस्तुतियाँ बेहद चर्चित रहीं, जिसमें प्रमुख "दुविधा" (1971) "धबकर" (1973), "अतः किम" (1981), "कोट" (खूँटी पर टँगे लोग) (1985), "सम संवेदना" (1993) थीं। इस परंपरा को आगे की तमाम नृत्यांगनाओं ने कायम रखा।
दोनों का ही मानना था कि अगर वे दिल्ली से बाहर न होतीं तो वे अपने अनुसार रचनात्मक कार्य नहीं कर पातीं। इसके पीछे वे शायद कथक केंद्र में बैठे परंपरावादी गुरुओं के वर्चस्व और प्रभाव के बारे में बताना चाहती हैं, जहाँ कुछ नया करने की संभावनाएँ बहुत कम ही होती हैं। वहाँ वर्चस्व भी सिर्फ इन्हीं गुरुओं का रहता है, इन महिला कलाकारों का नहीं। कथक केंद्र की ही नृत्य गुरु रेवा विद्यार्थी इस बात का प्रमाण हैं। रेवा जी ने आज के दौर की चोटी की कलाकारों को नृत्य की शिक्षा दी पर उन्हें कथक के बेसिक्स सिखाने वाली अध्यापिका की ही पहचान मिली। उन्होंने स्वयं अच्छन महाराज से नृत्य सीखा था, पर वे कभी उस मुकाम को नहीं छू पाईं जो अच्छन महाराज के उत्तराधिकारियों को मिला। कथक केंद्र के पाँच वर्षीय डिप्लोमा जो कि पश्चिमी बैले के समान ही विद्यार्थी के शरीर, दिमाग और मन के बीच एक सामंजस्य बैठाकर उसे तैयार करता था, उसे रेवाजी ने ही तैयार किया था। इसकी जानकारी भी कम लोगों को ही है। मुख्यतः वातावरण महिलाओं की अपनी पहचान और रचनात्मकता के लिए बेहद सँकरा और सीमित था। जहाँ गुरुओं का राज चलता हो, वहाँ अपनी एक अलग पहचान बनाकर स्वयं को उनकी सत्ता के बरक्स खड़ा कर देना आसान नहीं था। आज भी भले ही गुरुओं का राज खत्म नहीं हुआ हो, पर उनके राज और सत्ता में सेंध तो लग चुकी है। इन नृत्यांगनाओं ने इस सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ अपनी प्रतिरोधी आवाज दर्ज की है। इस आवाज को हम गुरु-शिष्य परंपरा में नवीनता, घरानों का बहिष्कार, परंपरा को लेकर जड़ता का विरोध और नृत्य में नवाचार एवं सामाजिक, राजनैतिक मुद्दे आदि के अंतर्गत समझ सकते हैं। इस आलेख में सिर्फ गुरु शिष्य परंपरा में नवीनता को लेकर ही बात की जा रही है।
स्त्री की आवाज और प्रतिरोधी चेतना पर हम बात करते हैं तो गुरु-शिष्य परंपरा में बदलाव एक महत्वपूर्ण मुद्दा आता है। तमाम नृत्यांगनाओं के साक्षात्कार और उनके अपने जीवन वृत्तांतों के माध्यम से यह मुद्दा उभर कर आया कि प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा में गुरु और शिष्य के बीच ईश्वर और दास का भाव ही रहता था। उनके शिक्षण का तरीका बेहद परंपरावादी होता था। किसी भी शिष्य को अपने गुरु से किसी भी तरह के प्रश्न पूछने की इजाजत नहीं थी, किसी तरह के नए विचार पर चर्चा करना तो दूर की बात थी। इस सोच के कारण तमाम शिष्य भीतर ही भीतर घुटकर रह जाते थे। नृत्य के बारे में उनकी जिज्ञासाएँ धरी की धरी रह जाती थीं, वे उसे अपने स्तर पर ही समाधान ढूँढ़कर शांत करने का प्रयास करते थे। कुमुदिनी लाखिया अपने गुरु पं. शंभु महाराज और सुंदर प्रसाद की प्रशंसा करते हुए कहती हैं कि नृत्य के उनके असीमित ज्ञान से कुमुदिनी ने अपने नृत्य में मजबूती प्राप्त की। पर गुरु शिष्य परंपरा के अपने अनुभवों के बारे में बताती हैं कि अपनी शिक्षा के दौरान उनके मन में तमाम तरह के प्रश्न कौंधा करते थे पर इस परंपरा के अंतर्गत उन्हें प्रश्न करने की इजाजत नहीं थी।
प्रेरणा श्रीमाली ने अपने साक्षात्कार में एक महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया कि उन गुरुओं के भीतर स्वयं को लेकर भी कोई सवाल पैदा नहीं होता था। सवाल-जवाब का वातावरण न होने के कारण नृत्य शिक्षण में किसी तरह की तार्किकता या उसे ज्यादा बेहतर तरीके से समझने के लिए किसी अन्य संदर्भ के उदाहरण देने का अभाव मिलता था। इसका बड़ा कारण कहीं न कहीं घरानेदार गुरुओं का अशिक्षित रह जाना है। उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा नृत्य को गहराई से जानने-समझने में लगा दी लेकिन ठीक से शिक्षित नहीं हो पाए। उनमें कई सिर्फ अपना हस्ताक्षर ही करना जानते थे। कथक का कोई लिखित व्याकरण भी नहीं था। अतः सारा ज्ञान गुरुओं के पास मौखिक परंपरा के रूप में ही रहा और उसे उन्होंने अपनी संपत्ति के रूप में व्यवहृत किया। उसे अर्जित करने, सँभालने और अगली पीढ़ी के अपने वारिस को कला हस्तांतरित करने की प्रक्रिया में उनके लिए शिक्षा गौण हो गई और शिक्षा के अभाव के कारण उनके भीतर खुलापन नहीं आ पाया। अतः वे अपने पूरे व्यवहार और सोच-समझ में बेहद पारंपरिक रहे।
पहले नृत्य का कोई नियत पाठ्यक्रम तो होता नहीं था, जिससे शिष्य को यह ज्ञात हो कि उसे क्या-क्या सीखना है। इस प्राचीन परंपरा में कोई शिष्य अपने गुरु से इस बात की मांग नहीं कर सकता था कि वह अब कोई नई चीज (कोई तोड़ा या टुकड़ा) सीखना चाहता है। जब गुरु की इच्छा होती थी या वे अपने किसी शिष्य की योग्यता या अन्य किसी कारण से प्रभावित होते थे, तभी उसे वे सिखाते थे। इन गुरुओं का गुस्सा तो जग प्रसिद्ध था। प्रसिद्ध नृत्यांगना कुमकुम धर अपने गुरु लच्छू महाराज को याद करते हुए बताती हैं कि उनका गुरु के साथ एक अलग ही संबंध था। वे कई बार अपने लिखे शेर पढ़ाने के लिए मेरा इंतजार भी करते थे, पर अपने गुरुओं से हम बहुत ही डरते थे, इतना डरते थे कि क्या बताएँ, कुछ साल मैं उनके घर में भी रही थी। डिसिप्लिन होता था, बहुत गुस्सा होते थे एकदम से। हम यह कभी नहीं कह सकते थे कि ये सिखा दीजिए, ये क्या होता है, सिखा दीजिए। कोई सिलेबस नहीं था, ये तो उनसे कहना ही नहीं था कि आप मुझे सिखा दीजिए, वो कहते थे जो आप लोगों को सिखाया, वह आता है ठीक से। कहते थे कि लोहे के चने हैं, अगर तुम चबा लोगे तभी सिखाएँगे। हम उनसे बहुत डरते थे, शायद आज हमारे शिष्य हमसे उतना नहीं डरते हालाँकि आदर करते ही हैं। इस बात से स्पष्ट होता है कि भय के बिना भी शिष्य गुरुओं को आदर देते हैं।
गुरु-शिष्य परंपरा में गंडा बंधन की भी परंपरा रही है। गंडा एक प्रकार का धागा होता है, जो गुरु अपने शिष्य को बांधा करता है। इस के बारे में कहा जाता है कि शिष्य जिस गुरु का गंडा-बंध शागिर्द है, वह फिर किसी दूसरे गुरु के साथ नहीं सीख सकता, न ही अन्य गुरु उसे सिखाने में दिलचस्पी लेते थे, इसलिए पहले अमूमन लोग एक या उसी घराने के लोगों से ही नृत्य सीखते थे।
इस घोर परंपरावादी संरचना के भीतर इन नृत्यांगनाओं ने नृत्य सीखा। नृत्य की बारीकियाँ सीखते हुए इस परंपरा में व्याप्त सत्ता संबंधों ने उन्हें हमेशा परेशान किया। अमूमन सारी नृत्यांगनाएँ शिक्षित थीं और किसी न किसी तरह के पारिवारिक, सामाजिक प्रतिरोध को पार करके इस क्षेत्र में आई थीं, लेकिन इस क्षेत्र में व्याप्त पारंपरिक दृष्टिकोण भले ही वह गुरु-शिष्य को लेकर हो या स्त्री-पुरुष को लेकर, कहीं न कहीं बहुत परेशान करता था। इसी से इन नृत्यांगनाओं ने अपने भीतर इस पारंपरिक दृष्टिकोण वाली परंपरा से अपने विद्यार्थियों को दूर रखने की ठानी। कुमुदिनी ने नृत्य की मर्दवादी व्यवस्था को बड़ी चुनौती दी। अपने भीतर इस परिवर्तन के बारे में कुमुदिनी बताती हैं कि जब मैंने एकल नृत्य करना प्रारंभ किया तो खुशी और उल्लास के ढेरों क्षण थे पर एक संतुष्टि या कहें कि नृत्य में एक आनंद की कमी थी। हर कलाकार का अपनी कला से एक अलग आत्मीय रिश्ता होता है। मेरा रिश्ता एक बिंदु पर आकर कठिन हो जाता था। हम अपने गुरुओं का बहुत सम्मान करते थे पर फिर भी उनके मूल्यों, विचारों और व्यवहार के साथ तालमेल बनाने में मन के भीतर एक द्वंद्व चलता रहता था। लेकिन मुझे अपनी संवेदनशीलता के साथ एक न्यायोचित संतुलन बनाना था। उन्होंने संतुलन तो बनाया, ताकि उनकी नृत्य शिक्षा बाधित न हो। पर जब वे स्वयं गुरु की भूमिका में आई, तो सबसे पहले उन्होंने गुरु की इस वर्चस्वता को अपने और अपने शिष्यों के बीच से दूर करने की ठानी। अपने अनुभवों से सीखकर उन्होंने अपने शिष्यों को जो पहली बात सिखाई, वह थी हर बात पर प्रश्न खड़े करना। उनका मानना था कि हर व्यक्ति को अपनी तरह से चीजों की जाँच-पड़ताल करनी चाहिए, तब उसकी सत्यता को स्वीकार करना चाहिए, न कि किसी के कहने भर से। वे बताती हैं कि अपनी नृत्य शिक्षा के दौरान ही उनके मन में ढेरों प्रश्न आ गए थे, जिन्होंने उन्हें कुछ नया और अलग करने की प्रेरणा दी। बकौल कुमुदिनी मैं लय-गति की एक प्रयोगशाला खोलना चाहती थी, मैं चाहती थी कि एक बहस और वार्तालाप का वातावरण बने, लोग खुल कर अपनी शंकाओं के समाधान पर बात कर पाएँ। मैं देखना चाहती थी कि किसी विद्यार्थी को क्या चीज नाचने के लिए प्रेरित करती है। मैं वो सब देखना और जानना चाहती थी जिसका मैंने अपनी नृत्य शिक्षा में अभाव महसूस किया।
अपने शिष्यों के साथ एक स्वस्थ वार्तालाप, नृत्य की शिक्षा एक तार्किक दृष्टिकोण से सिखाने का प्रयास, विद्यार्थियों को सहमत या असहमत होने की छूट, उन्हें प्रश्न करने के लिए प्रेरित करने और हर ज्ञान को अंतिम सत्य मानकर उसे स्वीकार करने का विरोध करना सिखाया। ये ऐसी बातें हैं जो हमें पारंपरिक दृष्टिकोण वाली गुरु-शिष्य परंपरा में नहीं मिलेंगी। गुरु शोवना नारायण अपने अनुभव याद करते हुए बताती हैं, गुरुजी का सिखाने का जो तरीका था, वो घोर परंपरावादी था। एक गुरु के बतौर मैं कंसन्ट्रेट करती हूँ जो महाराज जी ने मुझे जो तकनीकि सिखाई है, जो लय और गति दी है वो मैं विद्यार्थियों को बताऊँ लेकिन साथ ही साथ यह भी बताऊँ कि इसका कारण क्या है यह मूवमेंट क्यों है? क्योंकि आज के पढ़े-लिखे बच्चे पूछते हैं कि कर्ण क्या होता है? तल पुष्प पुट क्या है? हम जो शब्द या विषय ले रहे हैं उसे पूरी गहराई के साथ समझाना आवश्यक है। क्योंकि मेरी परवरिश साहित्य के साथ हुई है। केवल कृषकीय छेड़छाड़ ही नृत्य में मेरे लिए काफी नहीं है। मैं इससे आगे जाना चाहती हूँ और अपने विद्यार्थियों से भी इससे आगे जाने के लिए कहती हूँ। वे जाने हर बात के पीछे क्या कारण है? वह क्यों है उसकी क्या जरूरत है? जीवन में हम क्या कर रहे हैं और हमारा अपना व्यक्तिगत जीवन क्या है? दोनों में अंतर नहीं होना चाहिए। यहाँ नृत्य में हम संवेदनशीलता की बात करें तो व्यक्तिगत जीवन में भी वही होना ही चाहिए। अगर हम यहाँ कुछ कर रहे हैं और वहाँ कुछ, तो डिस्कनेक्ट है। यहाँ शोवना एक तार्किक ज्ञान की बात करती हैं, जिसे विद्यार्थियों को तार्किक तरीके से समझाया जा सके, बहस की जा सके, न कि उन पर थोप दिया जाए। बात यहाँ ऐसे ज्ञान की है, जिसे हम अपने जीवन में महसूस भी कर सकें। जीवन और ज्ञान के बीच एक अनिवार्य संबंध की आवश्यकता पर बल दिया गया है। जिसे उन्होंने कहीं न कहीं अपने शिष्य जीवन में महसूस किया।
कुमकुम धर अपने शिष्यों के साथ अपने अनुभवों के आधार पर बताती हैं कि महिला गुरु कहीं ना कहीं एक मदर्ली फिगर (मातृत्व-रूप) में होती है। एक मातृवत जैसी अपेक्षाएँ पुरुष गुरुओं से बिलकुल नहीं कर सकते हैं। मैं अपने गुरु से तो बिलकुल नहीं सोचती थी कि वह मेरे लिए कुछ करेंगे लेकिन जब विद्यार्थी मेरे घर आते हैं तो मैं सोचती हूँ कि कुछ खिला दूँ, चाय भी पिला दूँ, यह भी देखती हूँ कि उन्होने ड्रेस कौन सी खरीदी है, उनका टेक्सचर ठीक है कि नहीं, उसने बाल सही बनाए हैं, मतलब कहीं एक मदर फिगर, फिर गुस्सा भी करती हूँ, अगर सिखाना है, तो अपेक्षा तो होती ही है। कला के साथ कोई समझौता नहीं होता।
वहीं प्रेरणा श्रीमाली, अपने गुरु के साथ अपने अनुभव और अपने शिष्यों के साथ नए तरीके के संबंध के बारे में बताती हैं कि उनके (गुरु के) सिखाने का उनके हिसाब से उन्हें जो आता है, वो ठीक है। अपने लिए भी उनके मन में कोई सवाल नहीं पैदा होता था, जैसे मुझे अपने लिए सवाल पैदा होता है, जब सिखाती हूँ। मेरी गुरु के साथ इतनी दूरी रही है कि मैंने अपने शिष्यों के साथ उस दूरी को पाट दिया है। जब मैं सिखा रही हूँ तो मैं बिल्कुल अलग हूँ, पर इसके अलावा वो मेरे साथ बैठ के गपशप या कुछ भी बात कर सकते हैं, वो मुझ से सारे सवाल कर सकते हैं। दूसरा क्योंकि मैं परफॉर्मर हूँ तो मेरे सिखाने में एक दृष्टि यह भी रहती है कि ये जो हो रहा है, वो देखने में कैसा लगेगा जबकि मेरे गुरु का ये नजरिया शायद नहीं था। उनकी एक अलग नजर, अलग दृष्टि थी जिससे उन्हें ये समझ में आता था कि इस शिष्य को कुछ देना है या इसको नहीं देना है या इसको कितना देना है। प्रेरणा यहाँ बहुत महत्वपूर्ण बात रखती हैं। गुरु ज्ञान प्रदान करने के लिए शिष्य की योग्यता परखते थे कि किसे ज्ञान देना है, किसे नहीं। यह व्यवहार कई बार अनेक प्रकार से पक्षपातों को भी जन्म देता होगा जिससे इनकार नहीं किया जा सकता। गुरुओं के भीतर कठोरता का यही कारण था क्योंकि उनके ऊपर अपने ज्ञान को लेकर कोई लचीलापन नहीं था। मुख्यतः नृत्य उनके लिए एक पूँजी था। इस पर वे अपना नियंत्रण रखते थे क्योंकि यह इनकी जीविका का भी साधन था। यह पूँजी वे उसी को देना चाहते थे, जो उन्हें अपनी सेवा और व्यवहार से प्रसन्न कर पाए।
बिरजू महाराज की सुपुत्री एवं कथक नृत्यांगना ममता महाराज अपने पिता की बेटी होने के साथ-साथ उनकी गंडा-बंध शिष्या भी हैं। उनका कहना है कि उन्होंने या उनके भाई-बहनों ने अपने पिता को हमेशा गुरु के रूप में ही देखा, कभी पिता के रूप में नहीं। जिस तरह बच्चे अपने पिता के साथ जिद या हँसी-मजाक करते हैं, वैसा संबंध कभी उन लोगों का महाराज जी के साथ नहीं रहा। वे उन्हें एक गुरु के रूप में ही देखती हैं और वैसा ही सम्मान देने वाला व्यवहार करती हैं, वे उनकी एक गुरु के रूप में ही सेवा करती हैं। इस बात से स्पष्ट हो रहा है कि महाराज जी का उनके बच्चों के साथ एक बेहद औपचारिक संबंध है। यह इशारा करता है कि उनके शिष्यों के साथ उनके संबंध कितने परंपरावादी हैं। जब उनकी बेटी विद्यार्थियों को सिखाती है तो उसका व्यवहार इसके बिल्कुल उलट होता है। वे अपने नृत्य सिखाने के तरीके के बारे में बताती हैं, जहाँ तक मैं अपनी बात करूँ तो मेरे स्टूडेंट ज्यादा फ्रेंडली भी हैं। सिखाते वक्त तो बहुत क्योंकि मेरे अंदर एक जोश सिर्फ फौजी बनने की है, जब मैं सिखाती हूँ तो मेरी भावना एक फौजी के समान होती है। ऐसे करो, ऐसे प्रैक्टिस करो। तुमको जमीन भगवान ने दी समतल दी है, पंखा दिया, उन लोगों के बारे में सोचो जो पहाड़ों पर लड़ाई करते हैं, यहाँ तक की मजदूरों तक की बात करती हूँ कि सिर पर ईंटा लेकर वो गर्मियों में तपते हैं, बिल्डिंग बनाकर रखते हैं और उसी बिल्डिंग में तुम नाच रहे हो। इस हवा में भी तुम्हें गर्मी लग रही है। बाद में सोचती हूँ तो लगता है कलाकारी की बात है और यहाँ फौजियों की और ईंट पत्थर की बात हो रही है। लेकिन मेरे जो अंदर की ताकत, जो मजबूती है वो ये पत्थर ईंटे और फौज है। तो मैं मजबूत बना रही हूँ। लड़कियों से कहती हूँ कि तुम मजबूत बनो चाहे वो डांस हो या दुनिया के साथ लड़ने के लिए हो, स्ट्रांग रहो। ममता महाराज का एक गुरु के रूप में व्यवहार बहुत भिन्न है, जो सिर्फ नृत्यांगनाएँ ही तैयार नहीं कर रही हैं, बल्कि लड़कियों को इस जीवन में संघर्ष के लिए मजबूत बनाने का काम भी कर रही हैं। नृत्य के इस शिक्षण स्वरूप में हमें स्पष्ट रूप से एक प्रतिरोधी चेतना दिखाई देता है।
नृत्यांगनाओं के अनुभव हमें बताते हैं कि जिस पितृसत्तात्मक व्यवहार को किसी न किसी स्तर पर वे अपने परिवार या समाज में देख या झेल रहीं थीं, नृत्य की दुनिया भी उससे अलग नहीं, बल्कि दो कदम आगे ही थी, जहाँ किसी भी विद्यार्थी को प्रश्न पूछने तक की भी मनाही थी और वह अपने गुरु की अनुकंपा प्राप्त करने का ही इंतजार करता था, ताकि उसे कुछ बेहतर शिक्षा मिल पाए। इस अनुकंपा के लिए कई बार विद्यार्थियों को कई प्रकार के समझौते भी करने ही पड़ते होंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी की कथक गुरु पूनम निगम इस तरफ इशारा करते हुए कहती हैं कि एक गुरु और उसकी शिष्या के बीच बड़े सत्ता संबंध कायम रहते हैं, जो जेंडरगत भेदभाव पर आधारित होते हैं। सांध्य टाइम्स में गुरुओं को लेकर छपी यह टिप्पणी इस बात को स्पष्ट करती है।
पुरुष नर्तकों से अधिक नृत्य साधिकाओं की संख्या बहुत है और दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। ये महिलाएँ शिक्षित, सभ्य, कला की गहराई को समझने वाली हैं, जो निःसंकोच भाव से मंच पर उतरती हैं। तवायफों का युग बीत चुका है, जहाँ नृत्य के नाम पर शरीर का सौदा होता था। इतना सब होने पर भी नृत्य गुरुओं के शिक्षण-प्रशिक्षण, व्यवहार, आदतों में कहीं भी परिवर्तन नहीं दिखलाई देता है। आज भी कत्थक गुरु नाच-मुजरे वाली पुरानी परिपाटी के अनुरूप शिष्याओं से व्यवहार करते हैं।
गुरुओं के व्यवहार के बारे में एक और खास बात प्रेरणा से लिए साक्षात्कार में निकल कर आई। प्रेरणा ने बताया कि मेरे गुरुजी का बड़ा मन होता था कि एक किसी तवायफ की लड़की को सिखाना है। मैंने पूछा, आप ऐसा क्यों कहते हैं? हम लोग सब आपसे सीखना चाह रहे हैं। तो उन्होंने जवाब दिया कि अरे तू नहीं समझेगी, कुछ बात होती है। अब वो कुछ क्या बात होती है, हमें आज तक नहीं समझ आई। यह बात बड़ी रोचक है और ऊपर वाली बात की विरोधाभासी भी है। ऐसी क्या बात है कि गुरु कुंदन लाल एक तवायफ को नृत्य सिखाना चाहते थे (मध्यमवर्गीय तमाम लड़कियाँ तो नृत्य सीख ही रही थीं।) यहाँ इच्छा किसी लड़की को नृत्य सिखाने की नहीं थी बल्कि तवायफ को सिखाने की थी। नृत्य की कुछ तकनीक को नैतिक दृष्टि से उच्च जातीय, मध्यम या उच्चवर्गीय स्त्रियों के लिए अनुचित माना जाता था, आज भी माना जाता है। अतः हो सकता है उन्हें श्रृंगार रस की गूढ़ अभिव्यक्तियाँ सिखाने के लिए किसी तवायफ की आवश्यकता लगती रही हो, पर महिला गुरुओं के साथ इस संदर्भ में दिक्कत नहीं आती है। दक्षा सेठ की कई प्रस्तुतियाँ जिसे नैतिकतावादी भले ही न स्वीकार करें, पर उन्होंने उसका नृत्य निर्देशन बखूबी किया, बिना किसी तवायफ की आकांक्षा किए बगैर दक्षा के लिए यौन विषयक चर्चा या प्रस्तुति कुंठा नहीं बल्कि सहज मानवीय प्रक्रिया के रूप में है, जिसकी नृत्य में प्रस्तुति उतनी ही सहज है जितनी अन्य मानवीय व्यवहार या भावनाएँ।
गुरु-शिष्य परंपरा की तमाम जकड़नों से इन नृत्यांगनाओं ने अपने शिष्यों को आजाद किया और उन्हें खुली हवा में साँस लेने को प्रेरित किया। नृत्य को सिर्फ पारंपरिक दृष्टिकोण से समझने के बजाय उसमें एक नयापन अपने गहन अध्ययन का इस्तेमाल, नई विधाओं के साथ सामंजस्य आदि सभी कुछ सीखने के लिए इन महिला गुरुओं ने प्रेरित किया। सबसे बड़ी बात उन्होंने अपने विद्यार्थियों को सिर्फ नृत्य तक सीमित नहीं रखा बल्कि नृत्य के लिए नए साहित्य का अध्ययन, अन्य नृत्यों की जानकारी, पेंटिग्स की समझ आदि बनाने के लिए प्रोत्साहित किया, जो बकौल प्रेरणा श्रीमाली उनके गुरुओं ने कभी मना तो नहीं किया, पर कभी प्रेरित भी नहीं किया। यह नई परंपरा कथक समाज की जकड़न को दूर करने में एक बड़ी भूमिका निभाती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
कुमुदिनी कथक की पारंपरिक दुनिया की जड़ता पर आगे कहती हैं कि गुरु अपने शिष्यों को सिर्फ अपनी फोटो कॉपी बनाना चाहते हैं और इसे ही वे परंपरा का नाम देते हैं। बड़े गुरुओं द्वारा निर्देशित की गई पुरानी नृत्य प्रस्तुतियों को बिल्कुल उसी रूप में कई पीढ़ियों तक बिना किसी बदलाव के जस के तस प्रस्तुत किया जाता रहा है और इसे नाम दिया परंपरा का। इसे ही शुद्ध ज्ञान और अंतिम सत्य की तरह माना जाता है। किसी भी तरह के बदलाव को परंपरा के लिए हानिकारक माना जाता है, उसका निषेध किया जाता है। जबकि कुमुदिनी ने एक नई परंपरा की शुरुआत की। अपने नृत्य और नृत्य निर्देशन में उन्होंने अपने विचारों को मूर्तरूप दिया। उनकी हर प्रस्तुति एक अलग पहचान और अलग प्रभाव लेकर आई। कुमुदिनी का कहना है कि परंपरा को कंधे पर लेकर चलना काफी आसान है। उसके लिए आपको अपनी तरफ से कोई प्रयास नहीं करना। यह आपको सुरक्षा देता है, पर हम इस सुरक्षित कोने से बाहर निकले और हमने सृजन के माध्यम से इन चुनौतियों का सामना किया। अदिति मंगलदास भी परंपरा को एक नदी की तरह चलायमान मानती हैं न कि ठहरी हुई। इन गतिशील विचारों ने ही गुरु-शिष्य संबध के बीच एक नई नींव डाली है। इस नई परंपरा ने स्त्री की इस पित्रसत्तात्मक समाज व्यवस्था से टकराहट को भी स्पष्ट किया है। संरचना के असमानतामूलक स्वरूप को समझकर एक नए समतामूलक वातावरण व संबंधों की निर्मिति में उनका यह प्रयास सराहनीय है और बताता है कि नृत्य की दुनिया में जेंडर संबंधों की मजबूती ही एक सच्चाई नहीं है, उसमें फैली प्रतिरोधी चेतना भी उतनी ही बड़ी हकीकत है।
संदर्भ
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