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कविता

माटी

प्रेमशंकर शुक्ल


माटी में बिंधा
सुन रहा हूँ
बीजों के कसमसाने की आहट
गहराई में जाती जड़ों के साथ
उतर रहा हूँ

अभी-अभी मिला हूँ उस सोते से
जो फूटने-फूटने को है
बतिया आया हूँ उस पत्थर के साथ
जो माटी का एकदम शुरुआती साथी है

माटी की ही महिमा है
कि उर्वर है
आत्मा का प्रदेश

यह लाज-लिहाज
माटी की ही देन है

आ रही जो सोंधी खुशबू
हमारी ही पूर्वज-गंध है

अपनी माटी में रमा
भरा हूँ केवल
ममत्व से।
 


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