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कविता

गाती हुई स्त्री

प्रेमशंकर शुक्ल


धूप-तपा चेहरे वाली वह स्त्री
गाती है -
छाया जितना पुराना छंद

गाते-गाते वह स्त्री
सूख रही चीजों पर
सींच देती है आत्मा का जल
बुहार देती है आत्मा का ताप
ठिठुरन से जकड़ी जगह पर

सुबह-सुबह जब आँगन झाड़ते
वह गुनगुना रही होती है
कोई जन्म-गीत
तब पूरब के नील-लोहित आकाश में
एक बच्चा अपनी लालिम-आभा में
खिलखिला रहा होता है

न जाने कितने अन्न-गीत,
चिड़ियों, मछलियों, वनस्पतियों,
प्रेम और विछोह के गीत
बसे हैं उसके कंठ
जिनकी गूँज से
महकता हमारा जनपद
बचा रहता है -
उजाड़ से।
 


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