पाता नहीं कब से भीतर एक भय है बाहर बहुत जय है जय है बहुत से बढ़ जाता है भीतर का भय भीतर का भय और बाहर बहुत जय दिखाई देने लगे हैं - इतने एक कि हमें - अपने ही विश्वास में घुटन महसूस होती है।
हिंदी समय में प्रेमशंकर शुक्ल की रचनाएँ