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कविता

भीतर एक भय है

प्रेमशंकर शुक्ल


पाता नहीं कब से
भीतर एक भय है

बाहर बहुत जय है

जय है बहुत से
बढ़ जाता है
भीतर का भय

भीतर का भय
और बाहर बहुत जय
दिखाई देने लगे हैं -
इतने एक
कि हमें -
अपने ही विश्वास में
घुटन महसूस होती है।
 


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